योग के महागुरु
भारत में योग की परंपरा अनादिकाल से है। इसका आगमन वेदों से पहले माना जाता है। योग के आदि गुरु भगवान शंकर हैं और इसके जन्मदाता व महागुरु हिरण्यगर्भ थे। यहां योग के उन गुरुओं की चर्चा है, जिनका स्थान योग की दुनिया में सबसे ऊंचा है।
क्रिया योग के आदि गुरु
श्यामाचरण लाहिड़ी
(जन्म- 30 सितंबर 1828, मृत्यु -26 सितंबर 1895)
श्यामाचरण लाहिड़ी एक उच्च कोटि के साधक थे। कहते हैं- ‘होनहार विरवान के होत चीकने पात’ यह कहावत उन पर ठीक बैठती है। वे बचपन से ही अपनी प्रतिभा का परिचय देने लगे थे। लेकिन, रेलवे की नौकरी के दौरान दानापुर से बदली होकर रानीखेत पहुंचे। वहीं एक शाम श्यामाचरण लाहिड़ी भ्रमण के लिए निकले तो द्रोणगिरि नामक पर्वत गुरु से भेंट हुई। गुरु ने श्यामाचरण का स्वयं से परिचय कराया। उन्हें दीक्षित किया। फिर गृहस्थ आश्रम में रहते हुए जन-कल्याण कार्य के लिए प्रेरित किया। गुरु ने उनसे कहा- “आगे चलकर अनेक लोग तुमसे दीक्षा ग्रहण करेंगे। तुम्हें देखकर लोग यह जान सकेंगे कि उच्चस्तर की साधना से गृहस्थ भी लाभ उठा सकते हैं। तुम्हें गृहस्थी से अलग होने की आवश्यकता नहीं है।”
रानीखेत की उस घटना के बाद श्यामाचरण लाहिड़ी में अभूतपूर्व परिवर्तन आया। वे कर्मक्षेत्र की ओर लौटे। वहां वे लाहिड़ी महाशय के नाम से प्रसिद्ध हुए। गुरु के आदेश पर अपने शिष्यों को क्रिया-योग की शिक्षा देते। हालांकि, तब इस बात का पूरा ध्यान रखते थे कि कौन कितनी पात्रता रखता है। इसकी शिक्षा वे कई चरणों में देते थे। कहते हैं क्रिया-योग एक सरल मन:कायिक प्रणाली है, जिसके द्वारा मानव-रक्त कार्बन से रहित तथा ऑक्सीजन से प्रपूरित हो जाता है। इस अतिरिक्त ऑक्सीजन से अणु जीवन-प्रवाह में रूपांतरित होकर मस्तिष्क और मेरुदंड के चक्रों को नवशक्ति से पुन: पूरित कर देते है। कुल मिलाकर क्रिया-योग एक सुप्राचीन विज्ञान है। क्रिया-योग के संबंध में लाहिड़ी महाशय के गुरु ने कहा था कि 19वीं शताब्दी में जिस क्रिया-योग को मैं तुम्हारे जरिए विश्व को दे रहा हूं, वह उसी विज्ञान का पुनरुज्जीवन है, जिसे सहस्त्राब्दियों पहले भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को प्रदान किया था। बाद में जिसका ज्ञान पतंजलि समेत कुछ शिष्यों को प्राप्त हुआ था।
लाहिड़ी महाशय एक ओर आयोग्य पात्रों से परहेज किया। वहीं दूसरी ओर योग्य पात्रों को अपने यहां क्रिया-योग के माध्यम से आकर्षित कर बुला लेते थे। क्रिया-योग से उनका परिचय कराते थे। इस तरह अपने गुरु के आदेश का पालन किया। लाहिड़ी महाशय केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं रखते थे, बल्कि वे चिंतन और तत्वज्ञान के झरने थे। उनका कहना था कि ईश्वर की उपस्थिति का विश्वास ध्यान में रखते हुए अपने आनंददायक संपर्क से उन्हें जीतो। अगर तुम्हारी कोई समस्या हो तो क्रियायोग से हल करो। क्रिया-योग द्वारा तुम मुक्ति-पथ पर अनवरत रूप से आगे बढ़ते जाओ, क्योंकि इसकी शक्ति इसके अभ्यास पर निर्भर है। अग्नि के द्वारा जिस प्रकार धातु शुद्ध होता है, ठीक उसी प्रकार प्राणायाम से इंद्रियों की शुद्धि होती है।
लाहिड़ी महाशय का जन्म बंगाल के नदिया जिले में स्थित धरणी नामक गांव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा काशी में हुई। बंगला, संस्कृत के अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेजी का भी ज्ञान प्राप्त किया। जीविकोपार्जन के लिए छोटी उम्र में ही सरकारी नौकरी में लग गए। लेकिन गुरु से भेंट ने उनके जीवन को बदल दिया। उन्होंने वेदांत, सांख्य, वैशेषिक, योगदर्शन और अनेक संहिताओं की व्याख्या की। इनकी योग प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि गृहस्थ मनुष्य भी योगाभ्यास द्वारा चिर शांति प्राप्त कर योग के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ हो सकता है।
महर्षि रमण
जन्म- 30 दिसंबर, 1879, मृत्यु- 14 अप्रैल, 1950
“मदुरै छोड़ने के छह सप्ताह पूर्व मेरे जीवन में महान परिवर्तन आया। यह सब अचानक हो गया। एक दिन मैं अपने चाचा के मकान की पहली मंजिल पर अकेला बैठा था। मेरा स्वास्थ्य बिलकुल ठीक था, लेकिन न जाने क्यों अकस्मात मृत्यु-भय ने मुझे आक्रांत कर दिया।” महर्षि रमण आगे कहते हैं, “मुझे लगा जैसे मैं शीध्र मर जाउंगा। तब यह सोचने लगा कि मुझे क्या करना चाहिए। मैंने अनुभव किया कि इसका समाधान स्वयं मुझे ही ढूंढ़ना चाहिए। मृत्यु-भय ने मुझे तुरंत ही आत्म-निरीक्षण के लिए प्रेरित किया।”
अपने अनुभव को विस्तार देते हुए महर्षि रमण कहते हैं, “शरीर मरने से क्या मैं मर गया? क्या यह शरीर ही मैं हूं? नहीं, यह शरीर तो शांत निश्चेष्ट पड़ा है, लेकिन मैं अपने आप में हूं। इसका अर्थ यह हुआ कि मैं इस शरीर में समाया हुआ हूं। यह शरीर मर जाता है, पर मैं शरीर से भिन्न होने के कारण नहीं मरता। अत: मैं मृत्यु से परे ‘आत्मा’ हूं। इस प्रकार मुझे शरीर और आत्मा के पृथक अस्तित्व का भान हुआ। मैं मृत्यु-भय से मुक्त हो गया।” इस तरह बालक रमण के जीवन में आए बदलाव के बारे में स्वयं उन्होंने यह बात कही है। कहते हैं कि वे स्कूली पुस्तकों के अलावा धार्मिक पुस्तकें भी पढ़ते थे। अचानक एक दिन बालक रमण को ‘पेरिया पुराणम्’ नाम की पुस्तक हाथ आई। इस पुस्तक का प्रभाव रमण के किशोर मन पर गहरा पड़ा। सच तो यह है कि इस पुस्तक ने उन्हें एक नई दिशा दी।
एक दिन घर त्याग दिया। परिवार के लोगों को सूचना कर दी कि वे भगवान की खोज में निकल रहे हैं। इस क्रम में 1 सितंबर, 1896 को अरुणाचल पहुंचे। अरुणाचलेश मंदिर में दर्शन किया। फिर अय्यानकुलम सरोवर आए। वहां सिर मुड़वाकर स्नान किया और मंदिर में जाकर ध्यान-मग्न हो गए। इनकी साधना से प्रभावित होकर स्थानीय लोग रमण को ‘ब्राह्मण स्वामी’ कहने लगे। वे ध्यान की कठोर अवस्था में स्वयं को ले आए। आगे चलकर महर्षि रमण कहलाए। उनके बारे में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने लिखा है- “श्री रमण ने संन्यास ले लिया और अवधूत बन गए।” स्मरण रहे कि महर्षि रमण कभी ईश्वर की चर्चा नहीं करते थे। उनका एक मात्र कथन था कि अपने को पहचानो मैं क्या हूं? इस पर चिंतन करो। तब तुम उस विराट को पहचान सकोगे।
महर्षि रमण का अपने भक्तों को ज्ञान देने का तरीका रहस्यमय था। भक्त उन्हें हमेशा अपने पास देखते थे। चाहे वे आश्रम में हों या कहीं और। संसार में ऐसे अनेक भक्त हैं, जिन्होंने विचारों में ही अनसे साक्षात्कार किया। उनकी निकटता अनुभव की तथा उनसे वरदान प्राप्त किया। वे कथा के जरिए अपनी बात कहते और आत्मज्ञान पर बल देते थे। वे कहते थे- “आत्मज्ञान होने पर व्यक्ति भी अपने भीतर के विराट को पहचान लेता है।” भारत से अंग्रेज चले गए, पर अपने पीछे उन लोगों को छोड़ गए जो धर्म के नाम पर गरीब, पिछड़ी और निम्न जातियों को बहकाकर क्रिश्चियन बनाने में सहयोग कर रहे हैं। अर्काट जिले के पादरियों का प्रयास विफल जा रहा था। चर्च की प्रार्थना-सभा में लोगों की उपस्थिति भी कम हो गई थी। इसका कारण यह था कि महर्षि रमण लोगों के मन-मस्तिष्क पर छा चुके थे।