कला मनीषी: आनंद कुमारस्वामी
कला मनीषी: आनंद कुमारस्वामी  बनवारी बीसवीं सदी के आरम्भ में साम्राज्यवादी यूरोप अपने विजय अभियान के शिखर पर पहुंच चुका था। ब्रिटेन कुछ समय पहले ही भारत को अपने अधीन करने में सफल हो गया था। यूरोप में उसके इस उत्कर्ष का श्रेय नवजागरण काल के विचारों

कला मनीषी: आनंद कुमारस्वामी

नवोत्थान    02-Jul-2022
Total Views |

कला मनीषी: आनंद कुमारस्वामी


Anand swami_1 

बनवारी

बीसवीं सदी के आरम्भ में साम्राज्यवादी यूरोप अपने विजय अभियान के शिखर पर पहुंच चुका था। ब्रिटेन कुछ समय पहले ही भारत को अपने अधीन करने में सफल हो गया था। यूरोप में उसके इस उत्कर्ष का श्रेय नवजागरण काल के विचारों को दिया जा रहा था। यूरोपीय विद्वान अपने विचारों की श्रेष्ठता का बखान करने में लगे थे और अन्य सभ्यताओं और उनके विचारों तथा मान्यताओं को हेय दृष्टि से देखा जा रहा था। ऐसे समय जिन भारतीय विचारकों ने यूरोप के इस आत्मगान को चुनौदी दी और दिखाया कि उसकी सामरिक विजय का अर्थ उसकी श्रेष्ठता नहीं है, उनमें आनंद कुमारस्वामी का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने अपने लेखों और भाषणों से सिद्ध किया कि भारत की ज्ञान-यात्रा, सभ्यता-दृष्टि, जीवन-दर्शन, साहित्य और कलाएं यूरोप पर उसकी श्रेष्ठता सिद्ध करती हैं। बाद में इस बहस में बहुत से यूरोपीय भी सम्मिलित हो गए, जो यूरोप में औद्योगिक काल के उदय को उसका उत्थान नहीं बल्कि उसकी अवनति बताने में लगे थे। इन सब लोगों के कारण यह बहस कुछ-कुछ आधुनिकता के विरोध और परम्परा के अनुमोदन में बदल गई। आज जब यूरोपीय सभ्यता का विद्रूप सब क्षेत्रों में दिखने लगा है, उस काल और उसमें भारतीय गौरव को ऊंचा उठाने वाले अपने विचारकों के पुनः स्मरण की आवश्यकता है।

उस समय के हमारे मनीषियों में आनंद कुमारस्वामी का एक और कारण से विशेष महत्व है। उन्होंने ज्ञान मीमांसा, सामाजिक मान्यताओं, मिथक, साहित्य और कला आदि सभी क्षेत्रों में भारतीय सभ्यता की श्रेष्ठता स्थापित की थी। अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में उन्होंने कभी कुछ नहीं लिखा। उनके बारे में जो भी जानकारी मिलती है, वह उनके आसपास के लोगों द्वारा प्रयासपूर्वक इकट्ठी की गई। उनके पूर्वज कुछ पीढ़ियों पहले भारत के तमिल क्षेत्रों से उत्तरी श्रीलंका के जाफना नगर में जा बसे थे। भारत से उनके परिवार के संबंध के बारे में जानकारी का मुख्य आधार यह है कि उनके कुल का प्रयाग के एक मंदिर से संबंध था। वे बेल्लाला जाति के थे। यह संपन्न भूपतियों की जाति मानी जाती है। जाफना में उनका परिवार संपन्न और प्रतिष्ठित रहा होगा। उनके पिता मुतु कुमारस्वामी 22 वर्ष की आयु में ही वकील हो गए थे। बाद में उन्हें वहां के ब्रिटिश प्रशासन ने सीलोन की विधात्री परिषद का सदस्य नामित किया था। वे हिन्दुओं के प्रतिनिधि के तौर पर नामित होने वाले संभवतः पहले व्यक्ति थे। उनका अंग्रेजी भाषा पर काफी अधिकार था और वे दार्शनिक प्रवृत्ति के थे। वे कुछ समय के लिए लंदन गए थे, वहां रानी विक्टोरिया की एक सहायिका एलिजावेथ बीवी से उनका विवाह हुआ। एलिजावेथ बीवी इंग्लैंड के अभिजात कुल की थी। इंग्लैंड से जब वे सीलोन वापस आए तो उनकी किडनी खराब हो गई और कुछ ही दिन में उनका देहांत हो गया। आनंद कुमारस्वामी तब केवल दो वर्ष के थे।

आनंद कुमारस्वामी का जन्म श्रीलंका (सीलोन) के मुख्य नगर कलम्बु में 1877 में हुआ था। 1879 में वे अपनी मां के साथ इंग्लैंड लौट गए। 12 वर्ष की आयु में उन्होंने वाइक्लिफ कॉलेज में प्रवेश लिया। 1900 में उन्होंने लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज से भूगर्भ शास्त्र और वनस्पति शास्त्र में डिग्री प्राप्त की। बचपन में आनंद कुमारस्वामी की भाषाओं संबंधी जिज्ञासा प्रबल थी। कम आयु में ही उन्होंने अनेक भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। नई-नई भाषाएं जानने की उनकी यह प्रवृत्ति जीवनभर बनी रही। उन्हें लगता था कि किसी जाति की ज्ञान संबंधी उपलब्धियों को उसकी भाषा में पारंगत हुए बिना समझा नहीं जा सकता। एक बार अपने पुत्र राम कुमारस्वामी की जिज्ञासा शांत करने के लिए उन्होंने बताया था कि उन्हें 30 भाषाओं का ज्ञान है। उसकी एक सूची भी उन्होंने बनाकर दी थी। कुछ दिन बाद उनके पुत्र ने पाया कि वे पुस्तकालय में चीनी भाषा के ग्रंथों का अध्ययन कर रहे हैं। चीनी भाषा का उल्लेख उस सूची में नहीं था। पूछने पर उन्होंने बताया कि जब वे बिना शब्दकोश का सहारा लिए किसी भाषा के काव्य, कला और आर्ष साहित्य का अध्ययन करने में समर्थ हो जाते हैं, तभी वह उस पर अपना अधिकार मानते हैं। चीनी भाषा के लिए अभी उन्हें शब्दकोश का सहारा लेना पड़ता है, इसलिए वे उस पर अपना अधिकार नहीं मानते। बचपन में भाषाओं के अतिरिक्त उनकी रुचि भूगर्भ विज्ञान में हुई और उन्होंने उसका विधिवत अध्ययन आरंभ किया।

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन से भूगर्भ शास्त्र और वनस्पति शास्त्र की डिग्री प्राप्त करने के बाद वे फील्ड-वर्क के लिए सीलोन चले आए। इस बीच 1902 में 25 वर्ष की आयु में उन्होंने इथेल मेरी पैट्रिज नाम की एक फोटोग्राफर के साथ विवाह कर लिया था। 1902 से 1906 के बीच उन्होंने सीलोन की खनिज संपदा का सर्वेक्षण किया। अपने फील्ड-वर्क के दौरान उन्होंने दो नए खनिज खोज निकाले थे। इसी सिलसिले में उनका मैडम क्यूरी से संपर्क हुआ। अपने इस फील्ड-वर्क के आधार पर ही उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि मिली थी। उनके इस अध्ययन ने जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ सीलोन के गठन का आधार तैयार किया। उन्हें ही इसका पहला निदेशक बनाया गया। सीलोन में रहते हुए कुमारस्वामी ने अपनी फोटोग्राफर पत्नी के साथ सिंहली कला में रुचि लेना आरंभ किया। अपने काम के सिलसिले में उन्हें व्यापक भ्रमण करना पड़ता था। इस भ्रमण के दौरान उन्होंने पाया कि सिंहल लोगों की कला संबंधी उपलब्धियां बहुत ऊंची है और अंग्रेज प्रशासक उसकी अवहेलना करते हुए उसे नष्ट किए दे रहे हैं। इससे उनमें गहरी पश्चिम विरोधी भावनाएं पैदा हुईं। उन्होंने सिंहली कला का अध्ययन आरम्भ किया। उनकी पत्नी फोटो खींचती थीं और वे उसके विस्तृत विवरण तैयार करते थे। इसी प्रक्रिया में मध्यकालीन सिंहली कला का उन्होंने विशद् अध्ययन कर डाला।

सिंहली कला का अध्ययन करते हुए ही उनकी रुचि भारतीय कला की ओर हुई। वे भारत की यात्रा पर गए। कुछ दिन मद्रास में रुके। यहीं उनकी एनीबेसेंट से भेंट हुई। पर थियोसॉफिकल सोसायटी में उन्होंने कोई रुचि नहीं ली। वे वहां से उत्तर की ओर गए। कुछ दिन रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पास शांति निकेतन में भी रहे। उत्तर भारत में उन्होंने अपना यज्ञोपवीत करवाया। वे स्वतंत्रता आंदोलन में भी रुचि लेने लगे। स्वदेशी आंदोलन के नेताओं से उनका सम्पर्क बढ़ा। उनका क्रांतिकारियों से भी सम्पर्क हुआ। इस सबके कारण वे अंग्रेजी प्रशासन की निगाह में आ गए। उनकी मुख्य चिंता भारत में कला वस्तुओं का संग्रह करना और उसकी अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करना थी। इसलिए वे स्वतंत्रता आंदोलन से थोड़ी दूरी रखकर अपने काम में लग गए। उन्होंने भारतीय कला से संबंधित काफी जानकारी, फोटोग्राफ और कला वस्तुएं इकट्ठा की। पहले उन्होंने यह सारी सामग्री ब्रिटिश प्रशासन को देने की पेशकश की और उसके लिए एक संग्रहालय बनाए जाने का आग्रह किया। ब्रिटिश सरकार ने उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उसके बाद वे सारी सामग्री लेकर लंदन आए और तब से उन्होंने यूरोपीय लोगों को भारतीय कला के बारे में अवगत कराना और उनके पूर्वग्रह दूर करना अपना ध्येय बना लिया। उन्होंने कहा कि दुर्भाग्य से भारतीय कलाकृतियों पर उस समय तक पुरातत्वविदों ने ही लिखा था। वे भारतीय कला का मूल्यांकन करने में समर्थ नहीं थे। भारतीय कला का मूल्यांकन तो कलाविदों द्वारा ही किया जा सकता है। यह आश्चर्य की बात लगती है कि जिस व्यक्ति की समूची शिक्षा यूरोप में हुई हो और जो यूरोपीय माहौल में ही पला-बढ़ा हो, वह यूरोपीय प्रभावों से मुक्त होकर इतनी जल्दी भारतीय कला का इतना निष्ठावान अध्येता कैसे हो गया। ऐसा विलक्षण प्रतिभा के धनी लोगों के साथ ही हो पाता है।

लंदन में 1910 में आनंद कुमारस्वामी की भेंट एलिस एथेल रिचर्डसन से हुई। 1911 में उनके साथ वे श्रीनगर आए और एक हाउसबोट पर रहे। भारत में रिचर्डसन ने कपूरथला के अब्दुल रहीम से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली और आनंद कुमारस्वामी ने राजपूत चित्रकला का अध्ययन किया। लंदन लौटकर रिचर्डसन ने रतनदेवी के नाम से शास्त्रीय गायन आरंभ किया। ऐसे आयोजनों में आनंद कुमारस्वामी भारतीय शास्त्रीय संगीत का परिचय देते थे। 1913 में उनका अपनी पहली पत्नी से संबंध विच्छेद हो गया और उन्होंने एलिस रिचर्डसन से विवाह कर लिया। इस विवाह से उनके दो बच्चे हुए। पुत्र का नाम नारद रखा गया और पुत्री का रोहिणी। एलिस रिचर्डसन को अपने गायन में काफी सफलता मिली और आनंद कुमारस्वामी ने अपनी पहली अमेरिका यात्रा अपनी पत्नी के संगीत आयोजनों के लिए ही की थी। रिचर्डसन से उनका संबंध 1922 तक चला।

पहले महायुद्ध के आरंभ होने के बाद ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सेना में भर्ती होने के लिए कहा। आनंद कुमारस्वामी ने यह कहते हुए सेना में भर्ती होने से इनकार कर दिया कि ब्रिटिश शासन ने भारत को पराधीन बना रखा है। ऐसी स्थिति में वे ब्रिटिश सरकार का साथ नहीं दे सकते। इस पर उन्हें इंग्लैंड ही नहीं, पूरे ब्रिटिश साम्राज्य से निष्कासित कर दिया गया। अपने कुछ मित्रों की सहायता से वे अपना कला संग्रह लेकर अमेरिका चले गए। वहां 1917 में बोस्टन संग्रहालय ने उन्हें हिन्दू और मुस्लिम कला के क्यूरेटर का पद दिया। काफी बाद में कनाडा से व्याख्यान का एक निमंत्रण मिलने के बाद उन्हें पता लगा कि कनाडा सरकार उन्हें अपने यहां आने की अनुमति इसलिए नहीं दे सकती कि उनके निष्कासन के समय ब्रिटिश सरकार ने उनके ऊपर तीन हजार पाउंड का इनाम घोषित कर रखा था और वह आदेश अभी निरस्त नहीं हुआ था। आनंद कुमारस्वामी का अमेरिका प्रवास फिर जीवन के अंत तक चला। 1922 में इसी कारण अपनी दूसरी पत्नी रिचर्डसन से भी उनका संबंध विच्छेद हो गया था। नवम्बर 1922 में उन्होंने आयु में अपने से 29 वर्ष छोटी एक अमेरिकी कलाकार स्टेला ब्लॉक से विवाह कर लिया। 1929-30 की मंदी में आनंद कुमारस्वामी को काफी नुकसान उठाना पड़ा। इसी दौरान तीसरा विवाह भी टूट गया। इसका उनको काफी आघात लगा। 1930 में ही उन्होंने अपने से 24 वर्ष छोटी एक अर्जेंटीन फोटोग्राफर लुईसा रनस्टीन से विवाह किया, जिससे उन्हें एक पुत्र हुआ। कुमारस्वामी के इस तीसरे पुत्र का नाम राम कुमारस्वामी था।

आनंद कुमारस्वामी ने निश्चय किया था कि वे 1947 में अमेरिका छोड़कर भारत चले आएंगे और कुमायूं में अपना शेष जीवन बिताएंगे। शांत पहाड़ी वातावरण में रहकर वे उपनिषदों का अनुवाद करना चाहते थे। उन्होंने अपने बेटे राम को भारत भेजा था और वे चाहते थे कि वह अपनी शिक्षा भारत में ही करें। उन्हें पश्चिमी शिक्षा में कोई सार नहीं दिखाई देता था। राम कुमारस्वामी ने हरिद्वार आकर गुरुकुल कांगड़ी को देखा। इसी बीच अचानक अमेरिका में आनंद कुमारस्वामी की मृत्यु हो गई और उनके पुत्र को वापस अमेरिका लौटना पड़ा। आनंद कुमारस्वामी का अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुरूप भारतीय रीति से ही किया गया था। बाद में उनका अस्थि विसर्जन वाराणसी और हरिद्वार में गंगाजी में किया गया और उसके बाद कुछ अस्थियां श्रीलंका की एक पवित्र नदी में प्रवाहित की गईं। उनकी मृत्यु के कुछ वर्ष बाद 22 वर्ष की आयु में उनके बेटे राम ने कैथेलिक धर्म स्वीकार कर लिया। शायद अमेरिकी समाज में अपनी जगह बनाने के लिए उन्हें यह आवश्यक लगा। वे अमेरिका के एक प्रख्यात सर्जन हुए। 2006 में उनकी मृत्यु हो गई। आनंद कुमारस्वामी की मृत्यु के बाद उनके लेखन और पुस्तकों की साज-संभार और प्रकाशन आदि में उनकी चौथी पत्नी और पुत्र राम कुमारस्वामी ने काफी रुचि ली।

आनंद कुमारस्वामी के बौद्धिक अवदान को तीन चरणों में बांटकर देखा जा सकता है। पहला चरण उनके फील्ड-वर्क के लिए सीलोन पहुंचने से आरम्भ होता है। सीलोन की खनिज संपदा का सर्वेक्षण करते हुए उन्होंने सीलोन की कला को निकट से देखा। वे उससे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने पाया कि सिंहली कला-कृतियां दुर्दशा में पड़ी हैं। वहां का उपनिवेशवादी ब्रिटिश प्रशासन उनमें कोई भी रुचि लेने के लिए तैयार नहीं है। उन्होंने इस कला संपदा का संग्रह करना आरंभ किया। संग्रहित सामग्री के बारे में अधिक से अधिक जानकारी इकट्ठी की। अपनी फोटोग्राफर पत्नी की सहायता से उन्होंने उसे व्यवस्थित किया और उसका विस्तृत ब्योरा तैयार किया। सीलोन से वे भारत गए। यहां भी उन्होंने भारतीय कला संपदा का संग्रह और उसके अध्ययन का काम जारी रखा। इस सबके बारे में उन्होंने सीलोन, भारत और इंग्लैंड में जागृति पैदा करने की काफी कोशिश की। 1906 में उन्होंने सीलोन सोशल रिफॉर्म सोसायटी बनाई। वे उसके अध्यक्ष बने। इस संस्था का काम केवल वहां की कलाकृतियों और कारीगरी का संग्रह करना और उसे नवजीवन प्रदान करना ही नहीं था, उन्होंने उन मूल्यों और परम्पराओं के बारे में भी जानकारी बढ़ाने और उसके बारे में गौरव जगाने का प्रयत्न किया। उनकी इस संस्था का उद्देश्य पढ़े-लिखे लोगों में यूरोपीय लोगों के विचारों और जीवनशैली के अंधानुकरण की जो प्रवृत्ति आ गई थी, उसके विरुद्ध चेताना भी था।

उन्होंने 1906 से ही लंदन में भारतीय और सीलोन की कला के बारे में लोगों को अवगत कराने का एक अभियान सा छेड़ दिया था। उस समय के इंग्लैंड में भारतीय कला के बारे में न केवल अज्ञान था, बल्कि गहरे पूर्वग्रह थे। भारतीय कला को वे एक हीन और बर्बर जाति की निम्न कोटि की कला कहने में भी संकोच नहीं करते थे। संयोग से उस समय के यूरोप में ऐसे भी कई विचारक थे, जो औद्योगिक सभ्यता के तीखे आलोचक थे और वे उसे मूल्यहीन और कलाहीन मानते थे। इन लोगों में विलियम ब्लेक, जॉन रस्किन और विलियम मॉरिस की काफी ख्याति थी। आनंद कुमारस्वामी को उनसे काफी बल मिला। जॉन रस्किन के एक वाक्य को वे काफी दोहराते थे कि कलाविहीन औद्योगिक उत्पाद राक्षसी है। यूरोप में इस तरह के विचारों से प्रेरित बहुत से समूह पैदा हो गए थे, जो परम्परागत कला और कारीगरी को बचाने में लगे थे। आनंद कुमारस्वामी का ऐसे कुछ समूहों से सम्पर्क हुआ। इसी प्रक्रिया में 1908 में उनकी पहली पुस्तक मेडिवल सिंहलीज ऑर्ट और फिर 1913 में दूसरी पुस्तक द ऑटर्स एंड क्रॉफ्टस ऑफ इंडिया एण्ड सीलोन प्रकाशित हुई।

उनके बौद्धिक जीवन का दूसरा चरण इसके बाद ही आरम्भ होता है। इस अवधि में उन्होंने यूरोपीय लोगों के भारतीय जीवन, धर्म और दर्शन के बारे में फैले व्यापक अज्ञान को दूर करने के लिए भारत के धार्मिक विश्वासों, मान्यताओं, मिथकों और परम्पराओं के बारे में लिखना आरम्भ किया। इस दौर की उनकी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक द डांस ऑफ शिव है, जो 1918 में प्रकाशित हुई। इस दौर में उन्होंने भारतीय कला, कलादृष्टि, आख्यान, मूर्तिकला, चित्रकला, धार्मिक प्रतीकों और सामाजिक विश्वासों पर बहुत से लेख लिखे। इस दौर की उनकी दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तक राजपूत पेंटिंग्स थी, जिसमें उन्होंने राजपूत और मुगल शैली की चित्रकला के बारीक भेद को भी समझाने की कोशिश की थी।

उनके बौद्धिक जीवन का तीसरा चरण उनके अमेरिका प्रवास में आरम्भ होता है। उन्होंने आरम्भ से ही यह बताने की कोशिश की थी कि सभी कलाकृतियों के मूल में अपने समाज का जीवनदर्शन, उसके मूल्य और कलादृष्टि होती है। लेकिन अमेरिका में रहते हुए उनकी रुचि अधिकाधिक तात्विक होती गई। उन्होंने भारत की ब्रह्मविद्या का तो गहरा अध्ययन किया ही, इस सिलसिले में उन्होंने हिन्दू और बौद्ध दृष्टि के बीच का सामंजस्य भी दिखाने की कोशिश की। इसके अलावा उन्होंने यूनानी दर्शन और ईसाई मान्यताओं का भी गहरा अध्ययन किया। उन्होंने चीनी साहित्य के मूल ग्रंथों को समझने की भी कोशिश की। इन सबमें उन्हें जो एक जैसे सूत्र दिखाई दिए, उनके बारे में भी लिखा और उनके बीच जो विभिन्नता है, उसे भी स्पष्ट करने की कोशिश की। उनके इस समय के महत्वपूर्ण लेखों का बाद में दो ग्रंथों में प्रकाशन हुआ। उनमें से कुछ महत्वपूर्ण लेख हैं: द वेदांत एंड वेस्टर्न ट्रेडिशन, श्रीराम कृष्ण एंड रिलीजियस टॉलरेंस, रिकलेक्शन, इंडियन एंड प्लेटॉनिक, ऑन द इंडियन एंड ट्रेडिशनल साइकोलॉजी और रॉदर न्यूमेटॉलाजी, ऑन द वन एंड ऑनली ट्रांसमिगारेंट। उनकी बाद की पुस्तकों में क्रिश्चियन एंड ओरियंटल फिलॉसफी (1939), हिन्दुइज्म एंड बुद्धिज्म (1943) और टाइम एंड इटरनिटी काफी महत्वपूर्ण हैं। 1943 में उनकी एक और पुस्तक प्रकाशित हुई थी एम आई माई ब्रदर्स कीपर। उनकी मृत्यु के बाद उनके लेखों के दो और महत्वपूर्ण संग्रह प्रकाशित हुए। 1981 में सोर्सेज ऑफ विजडम का प्रकाशन हुआ और 1989 में व्हॉट इज सिविलाइजेशन का।

उनकी प्रसिद्धि भारतीय कलादृष्टि से अद्वितीय व्याख्याता के रूप में हुई। लेकिन मूल जिज्ञासा के बारे में उन्होंने कहा है कि उनके बौद्धिक जीवन का आरम्भ भारतीय कलादृष्टि को समझने और अनभिज्ञ यूरोप के लिए उसका व्याख्यान करने से हुआ था। पर यह करते हुए उनकी जिज्ञासा सनातन धर्म की ओर मुड़ी और हिन्दू व बौद्ध ग्रंथों का परिशीलन करते हुए तथा भारतीय समाज की मान्यताओं और विश्वासों को समझते हुए उन्होंने धर्म के मूल स्वरूप को पहचाना। इसी प्रक्रिया में वे सभी बड़े समाजों के तात्विक चिंतन की ओर मुड़े और उनकी जिज्ञासा सत्य के संधान की ओर मुड़ी।

आज हमें भारतीय कलादृष्टि के बारे में आनंद कुमारस्वामी ने जो कहा है, उसे विशेष रूप से समझने की आवश्यकता है। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने यह आशंका प्रकट की थी कि पश्चिमी शिक्षा के माध्यम से भारतीय यूरोपीय विचारों का अंधानुकरण करने लगे हैं। जब 1946 में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया के बारे में सुना तो दुःख के साथ कहा कि ऐसे सभी लोग आधे भारतीय हैं, आधे यूरोपीय। उन्होंने व्यंग्य करते हुए पूछा कि नेहरू ने भारत को कब डिस्कवर किया। आनंद कुमारस्वामी ने कहा कि यह पढ़े-लिखे लोग अपनी सभ्यता-दृष्टि को भूलकर भारत के भौतिक स्वरूप को कुरूप बना सकते हैं। आज हम कह सकते हैं कि उनकी आशंका सही सिद्ध हुई है। हम पश्चिम के अनुकरण पर एक कुरूप भौतिक ढांचा खड़ा करने में लगे हैं। हम अपने सामाजिक मूल्यों और विश्वासों को तिलांजलि देते चले जा रहे हैं। हमने अपनी सभ्यता का गौरव खो दिया है। आनंद कुमारस्वामी ने यूरोप की विषम परिस्थितियों में भारतीय सभ्यता, कलादृष्टि और जीवन मूल्यों की पताका लहराई थी। हम अनुकूल परिस्थितियों में भी उसकी रक्षा नहीं कर पा रहे। हमने भारत भूमि को कर्मभूमि की जगह भोग भूमि बना दिया। हम एक कलाविहीन भौतिक ताना-बाना खड़ा करने में लगे हैं।

आनंद कुमारस्वामी के समय यूरोप के कला जगत की मान्यता थी कि कला की सार्थकता उसके कला होने में ही है। कला के लिए कला की इस अवधारणा को असंगत बताते हुए कुमारस्वामी ने कला और कलाकृति में अंतर किया। उन्होंने कहा कि कला निर्माण करने वाले व्यक्ति की दृष्टि में होती है। उसकी दृष्टि में उसके समाज की मान्यताएं, मूल्य और सौंदर्यदृष्टि अंतर्भूत होते हैं। हम या तो कुछ कर रहे होते हैं, या कुछ बना रहे होते हैं। जब हम विचारपूर्वक कर रहे होते हैं तो वह भगवद्गीता के अर्थ में कर्म होता है- शुभकर्म। जब हम विचारपूर्वक बना रहे होते तो वह कलात्मक वस्तु होती है। भारतीय दृष्टि से अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप हम विचारपूर्वक जो भी बनाते हैं, वह कलात्मक ही होता है। जब हम केवल अनुकरण करते हुए बनाते हैं तो वह बनाना कला नहीं है। अपने जीवन की सभी तरह की आवश्यकताओं के लिए जो भी विचारपूर्वक बनाया जाए, कला उसमें निहित है, उससे अलग नहीं है। विचार को आगे रखकर बनाना कला नहीं है। इसलिए हम पाते हैं कि एक साधारण से कारीगर की बनाई चीज में अधिक सुंदरता होती है बजाय बड़े-बड़े नामी कलाविदों की बनाई कलाकृतियों के। भारत में मिट्टी के साधारण बर्तनों से लेकर देवमूर्तियों तक सभी चीजों में कला है। जब आप कला को सामान्य जीवन से अलग करके देखने लगते हैं, जैसा कि आधुनिक यूरोप में हुआ है, तब आप भटक जाते हैं।

भारत में अपनी आवश्यकताओं के लिए जो भी बनाया गया, उन सबमें कलात्मकता देखी जा सकती है। हमारे भोजन की सामग्री में कला है। हमारे वस्त्रों में कलात्मकता है। हमारे प्रसाधन की सामग्री में, आभूषणों में, अल्पना में, आवास के निर्माण में, मंदिर में, पूजा-अर्चना की विधियों में, गायन में, नृत्य में, कुएं-बावड़ी के निर्माण में, हमारे औजारों में, बर्तनों में, सभी वस्तुओं में कला देखी जा सकती है। आनंद कुमारस्वामी क कथन की सत्यता हम अपने समाज द्वारा अपनी आवश्यताओं की पूर्ति के लिए बनाई गई सभी चीजों में देख सकते हैं। यह विचारपूर्वक बनाना छोड़कर जब हम पश्चिम की बनाई औद्योगिक वस्तुओं का अनुकरण करने लगते हैं तो वह हमें कलाविहीनता की ओर ले जाता है। औद्योगिक प्रक्रियाओं से हुए उत्पादन में मात्रा की ओर ध्यान होता है। उसका लक्ष्य अधिक से अधिक उत्पादन है। उसमें कारीगरी नहीं है, यांत्रिकता है। यह यांत्रिक उत्पादन लोगों को कौशलविहीन बना रहा है, कलाविहीन बना रहा है।

आनंद कुमारस्वामी का मानना था कि हमारे बनाने में कला सहज आती है। अगर हम उसे आरोपित करने लगे तो वह अदृश्य होने लगती है। हमारा जो भी व्यवसाय हो, हम चाहे किसान हों या वास्तुविद् वह हमारा काम है और उसे विचारपूर्वक करते हुए हम अपने आत्मोन्नयन की ओर बढ़ते हैं और साथ ही अपने समाज के लिए अपनी उपयोगिता सिद्ध करते हैं। हम अपने मामूली साधनों से ही सौंदर्यानुभूति कर सकते हैं। अगर हममें सौंदर्यानुभूति नहीं है तो शब्द आडंबर से उसकी भरपाई नहीं हो सकती। यही कारण है कि मामूली कारीगर की बनाई वस्तुओं में हमें सौंदर्य दिख जाता है, जबकि बड़े-बड़े चित्रकारों की कलाकृतियां हममें कोई सौंदर्यबोध पैदा नहीं करतीं। आजकल हमारे भौतिक जीवन में जो कलाहीनता है, उसे हम पुरानी कलात्मक कृतियों का संग्रह करके पूरा करने का प्रयत्न करते हैं। लोक गायकों को समाप्त करते हुए हम लोकगायन का संग्रह करने लगते हैं। यह सब कहते हुए आनंद कुमारस्वामी संग्रहालयों के औचित्य पर सवाल उठाते रहे। वह यह भी कहते थे कि उन्हें कलात्मक वस्तुओं के संग्रह और प्रदर्शन की बात विचित्र लगती है। कला हममें जीवित होनी चाहिए। वह निरंतर हमारे दैनिक कामों में परिलक्षित होनी चाहिए। संग्रह की गई सामग्री निर्जीव है।

हम आधुनिक यूरोपीय सभ्यता के स्पर्श से एक पीढ़ी में ही अपने असंख्य लोगों के कला-कौशल को समाप्त कर सकते हैं। हम अपने स्थानीय बाजारों को अगर औद्योगिक वस्तुओं से भर दें तो साधारण कारीगर उनसे स्पर्धा नहीं कर सकता। हम अपने कारीगरों को बेकार करके उन्हें दूसरों का नौकर बनाने के लिए मजबूर करते जा रहे हैं। हम नहीं जानते कि हम अपने पूरे समाज को कितना दरिद्र बना रहे हैं। उसका कैसा आध्यात्मिक पतन कर रहे हैं। कलात्मक जीवन हमारे आत्मोन्नयन का साधन होता है। हमारे आदिवासी भी जब अपना घर बनाते हैं तो वह उनके विश्व की एक इकाई होता है। आज जो घर बन रहे हैं वे हमारे शारीरिक सुखों की एक मशीनी कल्पना पर आधारित है। आनंद कुमारस्वामी के अनुसार भारत के लोगों का हर काम और हर निर्माण ईश्वरत्व की साधना के लिए था। आज वह केवल मरणधर्मा शरीर के लिए है। हमारे जीवन में जैसे-जैसे कला समाप्त हो रही है, वैसे-वैसे हमारी सामाजिकता लुप्त होती जा रही है। कला हमें विराट से संबद्ध करती है। विराट की अनुभूति ही हममें सामाजिकता पैदा करती है। आनंद कुमारस्वामी के अनुसार इस तरह यह कला का ही नहीं, हमारे आध्यात्मिक जीवन का भी क्षरण है।

1- आनंद कुमारस्वामी ने अपने लेखों और भाषणों से सिद्ध किया कि भारत की ज्ञान-यात्रा, सभ्यता-दृष्टि, जीवन-दर्शन, साहित्य और कलाएं यूरोप पर उसकी श्रेष्ठता सिद्ध करती हैं।

2- हमारे मनीषियों में आनंद कुमारस्वामी का विशेष महत्व है। उन्होंने ज्ञान मीमांसा, सामाजिक मान्यताओं, मिथक, साहित्य और कला आदि सभी क्षेत्रों में भारतीय सभ्यता की श्रेष्ठता स्थापित की थी।

3- आनंद कुमारस्वामी क कथन की सत्यता हम अपने समाज द्वारा अपनी आवश्यताओं की पूर्ति के लिए बनाई गई सभी चीजों में देख सकते हैं। यह विचारपूर्वक बनाना छोड़कर जब हम पश्चिम की बनाई औद्योगिक वस्तुओं का अनुकरण करने लगते हैं तो वह हमें कलाविहीनता की ओर ले जाता है।

4- आनंद कुमारस्वामी संग्रहालयों के औचित्य पर सवाल उठाते रहे। वह यह भी कहते थे कि उन्हें कलात्मक वस्तुओं के संग्रह और प्रदर्शन की बात विचित्र लगती है। कला हममें जीवित होनी चाहिए। वह निरंतर हमारे दैनिक कामों में परिलक्षित होनी चाहिए। संग्रह की गई सामग्री निर्जीव है।

5- आनंद कुमारस्वामी के अनुसार भारत के लोगों का हर काम और हर निर्माण ईश्वरत्व की साधना के लिए था। आज वह केवल मरणधर्मा शरीर के लिए है। हमारे जीवन में जैसे-जैसे कला समाप्त हो रही है, वैसे-वैसे हमारी सामाजिकता लुप्त होती जा रही है। कला हमें विराट से संबद्ध करती है।