सबके बाबा योगेंद्र
रामबहादुर राय
बाबा योगेंद्र जैसा कोई नहीं है। दूसरा हो भी नहीं सकता। सिद्धांत और व्यवहार की दृष्टि से उनका अनोखापन वे सभी अनुभव करते हैं, जो उन्हें देख पाते हैं। जो उनके संपर्क में आ सके हैं। जिन्हें उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ है। नीति और नैतिकता के जितने रूप हो सकते हैं, वे सब उनमें समाए हुए हैं। उनके हर वचन और कर्म में वह सब प्रकट होता रहता है। उससे ही निकलता है- संस्कार और कला संस्कृति। विलक्षण बात है कि महान चित्रकार होने का कोई अहंकार बाबा योगेंद्र में खोजने या खरोचने से भी नहीं मिलेगा। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र से जो पुस्तक आई है, उसमें संस्मरणों से उनका एक शब्दचित्र बना है।
हर संस्मरण उनके साथ बिताए क्षणों से निकला है। जिसे पढ़कर बाबा योगेंद्र को शब्दों से जानना जितना संभव हो सकता है, वह हुआ है। हर संस्मरण अपने आप में पूरा नहीं होता, अधूरा रहता है। क्योंकि शब्द की अपनी सीमा है। उसका उस समय अधिक अनुभव होता है जब बाबा योगेंद्र का कोई शब्दचित्र उकेरने का प्रयास करता है। जिस व्यक्ति और वह भी विलक्षण का किसी को परिचय देते समय शब्द स्वयं बोल पड़ता है कि मैं ठूठ शब्द हूं, ब्रह्म नहीं। ब्रह्म जिस शब्द में समा जाए, वह अपनी हर सीमा तोड़ देता है। लेकिन अगर वह मात्र शब्द हो तो अभिव्यक्ति की उसकी क्षमता शून्य हो जाती है। तब शब्द अधूरे और कुछ हद तक खोखले लगने लगते हैं। ऐसी अवस्था दोनों की होती है, शब्द की और उसके लेखक या वाचक की। इसका एक स्पष्ट कारण है। संस्मरण जो लिखने का प्रयास करता है और लिखता है, वह उसी धरातल पर होता है जो उसका है। जबकि उसे वर्णन उसका करना होता है जो हिमालय के शिखर पर है। क्या यह आसान है? अवश्य कठिन है। इसलिए संस्मरण में पूर्णता पाना करीब-करीब असंभव है। उस व्यक्तित्व की एक झलक अवश्य संस्मरण में संभव है। यही क्या कम संतोष की बात है!
तब क्या करें? कैसे बाबा योगेंद्र को समझें और जाने? मानना एक बात है तो जानना बिल्कुल दूसरी बात है। देखकर और सुनकर मानने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। लेकिन जानने की राह अपनी होती है। वह ऐसी है जो स्वयं राह है, पर उसकी कोई मंजिल नहीं है। बिना मंजिल के भी राह हो सकती है। तब वह सार्थक राह नहीं मानी जाती। जब राह और मंजिल का मेल होता है, तब वह हर तरह से सार्थक माना जाता है। जानना जो है, वह राह भी है और उसकी मंजिल भी है। जानने के लिए समझ चाहिए। उसे विकसित करना पड़ता है। थोड़े ही लोग होते हैं जो इस प्रक्रिया से परे होते हैं। जैसे बाबा योगेंद्र एक उदाहरण हैं। उनका यह गुण जन्मजात होता है। लेकिन सर्वसाधारण पर यह नियम लागू नहीं होता। जानने के लिए उसको प्रयास करना पड़ता है।
बाबा योगेंद्र को जानने के लिए कला की प्रारंभिक समझ चाहिए। नहीं तो होगा यह कि जो कसौटी होनी चाहिए, उसकी जगह कुछ दूसरा पैमाना बनाकर उनको देखने से बड़ी भूल हो सकती है। उसी तरह की भूल होगी जैसे कोई किसी राजनीतिक व्यक्ति से कहने लगे कि आप विज्ञान के गूढ़ प्रश्न को हल करें। किसी गणितज्ञ से जैसे कोई यह मांग करने लगे कि आप कविता लिखो और उसे लयबद्ध गीत बनाकर सुनाओ। इस तरह की उटपटांग कसौटियों से बचने की जरूरत है। तभी एक चित्रकार और कलाधर्मी को जान सकते हैं। बाबा योगेंद्र की मूल प्रकृति यही है। उनकी कला में धर्म भी है और अध्यात्म भी। वही उनकी कला में अनुभूति के रूप में प्रकट होता है। जो अभिव्यक्त होता है, वह केवल कला का एक रूप नहीं होता, बल्कि वह धर्म और अध्यात्म का साक्षात स्वरूप होता है। देशभक्ति उसका माध्यम होती है।
मैंने कहीं पढ़ा है कि जिस दिन धर्म की अनुभूति इतनी गहरी होती है कि वह बाहर होने और फैलने के लिए हर बंधन तोड़ देती है उसी दिन कला का जन्म होता है। यही बात बाबा योगेंद्र की कलाधर्मिता में साक्षात दिखती है। इसके लिए वे अपने माध्यम चुनते रहे हैं। उसकी कहानी उतनी लंबी है, जितनी उनकी आज तक की जीवन यात्रा। वह करीब एक सदी की यात्रा है। किसी मनुष्य को ऐसा अवसर सहज सुलभ नहीं होता। दुर्लभ होता है। उन्हें यह सहज सुलभ हुआ है। उसकी सुगंध की कोई सीमा नहीं है। किसी प्रकार की कोई सीमा नहीं है। असीम है। जो भी उनके संपर्क में आया, वह उनके इस पक्ष को जान सका और धन्य हो गया। यह इस पुस्तक के हर संस्मरण में पढ़ सकते हैं। पढ़ते हुए उसे अनुभव भी कर सकते हैं।
आज बाबा योगेंद्र सबके हैं। उनका जन्म स्थान और पैतृक निवास प्रस्थान बिंदु हो सकता है, लेकिन वे उसकी छाया से कब निकल गए और कैसे विराट समाज में सम्मिलित हो गए, इस कहानी का बहुत छोटा अंश इस पुस्तक में आया है। वह प्रसंगवश है। जैसे यह कि 1924 में वे उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्मे। उनके पिता विजय बहादुर श्रीवास्तव प्रसिद्ध वकील थे। स्वाधीनता संग्राम के कांग्रेस की तरफ उनका झुकाव था। लेकिन बचपन में ही बाबा योगेंद्र उस युवा के संपर्क में आए जो घरबार छोड़कर बिना संन्यास के और बिना संन्यासी वस्त्र के सबकी तरह दिखने वाला एक भविष्य निर्माता था। उन्हें ही आज देश-दुनिया नानाजी देशमुख के नाम से आदरपूर्वक जानती हैं। वह संपर्क संचित कर्म का हिस्सा था या प्रारब्ध का, यह कौन जानता है। आज जब बाबा योगेंद्र उस क्षण को अभिभूत होकर याद करते हैं तो वे सात दशक पुरानी स्मृतियों में गहन गोते लगाते हैं। यह बहुत स्वाभाविक है। उससे निकलते ही वे सार्थकता के भाव से विभोर होते हैं और वह आभा उनके चारो तरफ अपने आप फैल जाती है। जिसका स्पर्श मात्र ही किसी को भी संस्कारित करने के लिए काफी होता है। यही तो उनके जीवन की परिभाषा है।
अलबत्ता उनके जीवन में भी घास-पात के जंगल उगे होंगे, जिसे प्रयास और परिश्रम पूर्वक उन्होंने उखाड़ फेंका होगा। वहां एक मनोरम बगीचा बनाया होगा। उस प्रयास की कहानी ऐसी है जिसे जानना असंभव को साधने से कम नहीं है। क्योंकि बाबा योगेंद्र उस युग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें अपने बारे में बताना हांकना माना जाता है। इसलिए तो दया प्रकाश सिन्हा उन्हें अपने समय का शंकराचार्य बताते हैं। वे 30-35 वर्षों से बाबा योगेंद्र से परिचित हैं। इसके बावजूद उनका कहना है- ‘फिर भी मैं यही कहूंगा, मैं योगेंद्र जी को नहीं जानता।’ वे कह रहे हैं कि मैं नहीं जानता तो तुम कहां से जान लोगे। इस झंझट में मत पड़ो। उन्हें मानो। उससे ही जानने की शुरुआत करो। जानने की राह पर चलो, हालांकि मंजिल दूर है। बिना थके, रुके और ठिठके चलते रहो जैसे वे अब भी अविराम चल रहे हैं।
बाबा योगेंद्र बरतने वाली जीवन कला के प्रतिरूप हैं। बिकने वाली बाजार की कला से वे अछूते हैं। चाहते तो उसमें पड़ सकते थे। सकारण नहीं पड़े। इसे समझ लें और मन में बैठा लें तो जिस सांस्कृतिक जागरण के वे भगीरथ हैं, उसे अपने दिल की धड़कनों में उतार लेना कठिन नहीं होगा, बल्कि सरल होगा। कला और धर्म दो पटरियां नहीं हैं। इसलिए कहीं न मिलने और समानांतर चलते रहने का दृश्य जो लोग मन में पालते हैं, वे अनाड़ी हैं। उनकी संख्या कम नहीं है, ज्यादा ही है। बाबा योगेंद्र की कलाधर्मिता का एक स्पष्ट संदेश है कि धर्म और अध्यात्म का ही दूसरा नाम कला है। जो नदी की भांति प्रवाहमान है। निर्मल है। पुण्य सलिला है। उसके किनारे बने घाट उस कला के आयोजन का आमंत्रण देते हैं, जहां भारतीयता अपनी पूरी छटा में उपस्थित हो जाती है। ऐसी कला ही वासना से परे होगी। बाजार की नहीं होगी। बिकने के बजाए आचरण में उतारने के लिए होगी। आज दृश्य विपरीत है। चित्र हो या मूर्ति या संगीत सब में मनुष्य की वे प्रवृतियां दिखाई जाती हैं जो उत्थान नहीं, पतन को बढ़ावा देती हैं। इस अर्थ में बाबा योगेंद्र की कलाधर्मिता नया प्रतिमान प्रस्तुत करती हैं। इसी अर्थ में वे भारत की संत परंपरा के इस समय कला प्रतिनिधि हैं। उनके इस पुरुषार्थ का अभिनंदन कर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र अपना दायित्व निर्वाह कर रहा है। इसी कर्तव्य-बोध से उन पर ‘सांस्कृतिक संवाद श्रृंखला’ का यह आयोजन है और इस अवसर पर यह पुस्तक।