योग परंपरा के आदिगुरु
योग परंपरा के आदिगुरु  पांडिचेरी का प्रसिद्ध श्रीअरविंद आश्रम मनुष्य को आत्म-संयम के जरिये आंतरिक क्रियाओं से ईश्वर के साक्षात्कार का संदेश देता है। साथ ही इसके लिए प्रेरित करता है। स्वयं श्रीअरविंद इसके जनक थे। श्रीअरविंद ने अपने संपूर्ण जीवन को

योग परंपरा के आदिगुरु

नवोत्थान    02-Jul-2022
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योग परंपरा के आदिगुरु


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पांडिचेरी का प्रसिद्ध श्रीअरविंद आश्रम मनुष्य को आत्म-संयम के जरिये आंतरिक क्रियाओं से ईश्वर के साक्षात्कार का संदेश देता है। साथ ही इसके लिए प्रेरित करता है। स्वयं श्रीअरविंद इसके जनक थे। श्रीअरविंद ने अपने संपूर्ण जीवन को साधना में लगाया। संसार सुख-साधनों का त्याग कर उन्होंने विश्व-मानवता के कल्याण में अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। वे 15 अगस्त, 1872 ई. को कोलकाता में पैदा हुए थे। पिता का नाम था- श्रीकृष्णधन घोष। वे पाश्चात्य सभ्यता के पक्षपाती थे। अंग्रेज सरकार में सिविल सर्जन थे।

श्रीकृष्णधन घोष चाहते थे कि बेटा पाश्चात्य संस्कृति में पले-बढ़े। यह8 वजह थी कि उन्होंने सात वर्ष की आयु में ही श्रीअरविद को इंग्लैंड भेज दिया। इंग्लैंड में श्रीअरविंद ने सफलता पूर्वक अपनी शिक्षा पूरी की। पिता के कहने पर ही वहां होने वाली भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा में हिस्सा लिया, लेकिन घुड़सवारी की परीक्षा में वे विफल हो गए। 1893 में वे वापस भारत आ गए। उन्हीं दिनों इंग्लैंड में उनका परिचय बड़ौदा महाराज से हुआ। बड़ौदा महाराज ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें अपने राज्य के एक उच्च पद पर नियुक्त कर लिया। बाद में वे बड़ौदा कॉलेज के वायस-प्रिंसीपल भी हुए। यहीं उन्होंने भारतीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया।

उसे पढ़कर उन्हें लगा कि आध्यात्मिक ज्ञान का जो अपार भंडार भारतीय प्राचीन ग्रन्थों, वेदों, पुराणों, उपनिषदों, गीता, रामायण तथा महाभारत में मौजूद है, वह कहीं और नहीं है।

इसी दौरान इनको क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण एक साल की सजा हुई। उन्हें जेल हुई। जेल में श्रीअरविंद ने भगवान कृष्ण की एक अदृश्य शक्ति को अनुभव किया। इस एक बड़े तथ्य को पाकर जब वे जेल से बाहर आए तो यह संकल्प लेकर निकले कि वे अपनी समग्र मानवीय शक्तियों को आत्मा में एकीभूत कर अनन्त अन्त:शक्ति को मातृभूमि की रक्षा में नियोजित करेंगे। इसके साथ-साथ उसी की सहायता से देश के बलिदानी वीरों को शक्ति प्रदान करेंगे। जेल से रिहा होने के बाद वे पांडिचेरी चले गए, जहां इन्होंने अपने जीवन का ज्यादातर समय विभिन्न तरह की साधना के विस्तार में लगाया।

श्रीअरविन्द 4 मार्च, 1910 को आए तो वे अकेले ही थे, किन्तु शीघ्र ही एक से अनेक होने लगे। उनका छोटा-सा साधना कुटीर एक बड़े आश्रम के रूप में बदलने लगा। शीघ्र ही पांडिचेरी का आश्रम आध्यात्मिक अस्त्रों की एक यंत्रशाला बन गया। यह एक संयोग ही है कि उनकी जन्म तिथि पर ही भारत स्वतंत्र हुआ, किन्तु कौन कह सकता है कि भारत की इस सफलता में श्रीअरविंद का यह गुप्त योगदान हजारों, लाखों सशस्त्र सैनिकों से बढ़कर था। यद्यपि योगी अरविंद आज नहीं हैं, किन्तु उनका वह अमर पांडिचेरी आश्रम सदैव ही उनकी याद दिलाता रहेगा, जहां बैठकर उन्होंने आत्म-कल्याण के लिए नहीं राष्ट्र-कल्याण के लिए तप किया था। योग साधना की थी। उनकी साधना की दिशा मनुष्य चेतना पर केन्द्रित थी। वे मानव चेतना को शारीरिक, मानसिक, स्नायविक से होते हुए चैत्य की श्रेणी तक ले जाना चाहते थे।

श्रीअरविंद के जन्मजात संस्कार, विचार, संकल्प, तपस्या व प्रेरणा शक्ति तथा आदर्श के फलस्वरूप उनकी आध्यात्मिक सहयोगी श्रीमां की तपस्या से पांडिचेरी में श्रीअरविंद आश्रम की स्थापना हुई। इसमें 2000 व्यक्ति नियमित रूप से विगत 80 वर्ष से साधना करते आ रहे हैं। यह तपस्या पारंपरिक अर्थों में पर्वतों की कंदराओं में न होकर पार्थिव जगत में सामान्य मनुष्यों से सतत संपर्क साधते हुए पूर्ण की गई। श्रीअरविंद ने कई किताबे लिखीं। मूल रूप से फ्रांस की रहने वाली श्रीमां ने उनके विचारों और लेखनी को विश्व के सामने सुनियोजित ढंग से लाया। श्रीमां एवं श्रीअरविंद पूर्ण योग के प्रणेता थे, जिसका अर्थ है जो भी काम किया जाए उसमें पूर्ण कौशल तथा पारंगतता प्राप्त करना ही पूर्ण योग है। इससे श्रीकृष्ण जैसे योगी 'योग: कर्म सु कोशलम' वाले आदर्श की याद भी आती है।