छउ आवरण की अनोखी कलाunique art of chhau dance
  छउ आवरण की अनोखी कला  भारत अपनी तमाम अतरंगी कहानियों के लिए जाना जाता है। इन्हीं कहानियों की नींव बसती है भारत के विभिन्न राज्यों में। छऊ नृत्य भारत में झारखंड, ओड़िसा, बंगाल का लोकप्रिय नृत्य है। ‘छउ’ शब्द संस्कृत शब्द ̵

छउ आवरण की अनोखी कलाunique art of chhau dance

नवोत्थान    14-Jul-2022
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 छउ आवरण की अनोखी कला
 
 छउ आवरण की अनोखी कला
 
 
भारत अपनी तमाम अतरंगी कहानियों के लिए जाना जाता है। इन्हीं कहानियों की नींव बसती है भारत के विभिन्न राज्यों में। छऊ नृत्य भारत में झारखंड, ओड़िसा, बंगाल का लोकप्रिय नृत्य है।छउ शब्द संस्कृत शब्द छाया से लिया गया है जिसका अर्थ छाया या छवि है। पुरुलिया जिले की ये कला पुरुलिया छाऊ नृत्य के नाम से प्रसिद्ध है। इस कला को मूल रुप से युद्ध कला का रुप माना जाता है। गत वर्षों में हुए इसके विस्तार से इसमें लडाई कि तकनीक से पशु कि गति और चाल को दर्शाया जाता है। ग्रामीण गृहिणी के काम-काज को दर्शाया जाता है इसमें पुरुष नर्तक स्त्री का वेश ारण करते हैं। नृत्य में रामाय और महाभारत घट्ना का भी चित्रणकिया जाता है। यह नृत्य ज्यादातर रात में किया जाता है।
  

छाऊ 150 वर्षों पुरानी कला है। जिसे आम शब्दों में बाघमुंडी के राजा मदन मोहन सिंह के राज्यकाल के जमाने का माना जाता है। छउ नृत्य मे इस्तेमाल होने वाला विशेष तरह के नकाब कोबंगाल आदिवासी जातियां- महापात्र, महारान और सुत्रधर बनाती है वहीं मुंडा, महतो, कलिन्दि, पत्तानिक, समल, दरोगा, मोहन्ती, भोल, अचर्या, कर, दुबे और साहू सम्प्रदाय के लोग नृत्य प्रस्तुति करते हैं। पुरुलिया जिले में 500 परिवार छऊ नकाब बनाते हैं। वहीं छरिडा में 150 कलाकार इस कला को आज भी जीवित रखने में अपना योगदान दे रहे हैं। छऊ कला को विश्व भर में पहुंचाने के लिए सरकार ने 1981 में गंभीर सिंह मुरा को पद्मश्री से पुरस्कृत किया। साथ ही 1983 में कला में किए गए अपने उत्तीर्ण कार्य के लिए नेपाल मेहतो को पद्मश्री से सम्मानित किया गया है। छरिडा के छऊ कला के गुरु नेपाल सुत्रधर हैं। मनोरंजन सुत्रधर, परिमल दत्ता, भीम सुत्रधर, फालगुनी सुत्रधर, धर्मेंद्र सुत्रधर इत्यादि को मिलाकर 15 नकाब बनाने वाले कलाकारों को राज्य व जिला स्तर पर सम्मान प्राप्त है।

सही समय

बारिश के मौसम में न तो नकाब बनाना मुमकिन है और न ही नृत्य प्रस्तुत करना। कारणवश आर्थिक रुप से भी कलाकारों को भारी नुकसान होता है। कला की लोकप्रियता का आभास यहां हर वर्ष होने वाले छाऊ मास्क फेस्टिवल से होता है। यह उत्सव दिसम्बर और जनवरी के महीने में मनाया जाता है। कलाकारों ने इसका विस्तार करते हुए जापान और फ्रांस में भी अपनी छाप छोड़ी है। साथ ही मार्च- अप्रैल में आयोजित छाउ डांस फेस्टिवल का भी आयोजन किया जाता है। सर्दियों में विदेशियों की संख्या ज्यादा होने से आर्थिक मदद भी मिलती है।

साथ ही कला की लोकप्रियता का एहसास बांग्ला फिल्मों से इसके प्रयोग से होता है। 2012 में हिन्दी फिल्म बर्फि में भी इस नृत्य की खुबसूरत प्रस्तुति की गई थी। साथ ही लुटेरा फिल्म में भी शुरुआती दृश्यों में इस नृत्य के रामायण रुप की झलक मिलती है।

बनावट की प्रक्रिया

नृत्य करना और उस नृत्य के लिए सामान तैयार करना दो अलग कहानियां है। इस कला का सारा अस्तित्व रंगबिरंगी-सजावट से लैस मुखौटों में छिपा है। जिस तरह से एक कुम्हार अपना घड़ा बनाने के लिए एक लंबी प्रक्रिया से होकर गुजरता है उसी तरह इन सुंदर नकाबों को बनाने के लिए ऐसी ही लंबी प्रक्रिया को अमल में लाया जाता है।

इसे तीन चरणों में पुरा किया जाता हैः

1. महामाठी

2. रंगाई

3. सजावट

सबसे पहले यमुना किनारे से मिट्टी इकट्ठी की जाती है। इसके बाद इसे एक निर्धारित नकाब की शक्ल दी जाती है। नकाब को मजबूत बनाने के लिए इन पर कागज की परत लगाई जाती है। कुछ दिन तक इन्हें धुप में सुखाया जाता है। धूप की सिकाई में मजबूत होने के बाद बेल माटी का कोट लगाया जाता है। माटी के कोट के वक्त इस पर एक कपड़े की परत को चढाया जाता है और सूख जाने पर कपड़ा हटा दिया जाता है। आखिर में इस पर खोड़ी माटी का लेप किया जाता है। इस लेप के बाद मुखौटे को रंग, फुल-पत्ते, गोटा, पत्थर, इत्यादि कई प्रकार की सजावट से सजाया जाता है। माटी कला की ये विधा भी बारिश को नापसंद करती है। इन नकाबों की लागत के मुताबिक इनकी कीमत 700 रुपए से 4000 रुपए तक होती है।

नकाबों की बनावट का महत्व उसके रुप से तय होता है। हर रंग का अपना एक महत्व है जैसे- नकाब में इस्तेमाल होने वाला पीला और संतरी रंग देवी दुर्गा, लक्षमी, और कार्तिक को दर्शाने के लिए होता है। सफेद रंग भगवान शिव, गणेश, और देवी सरस्वती की पहचान कराता है। वहीं नीला और काला रंग देवी काली के लिए प्रयोग किया जाता है। जहां एक तरफ नकाब पर तिलक का महत्व भगवान राम और कृष्ण की पहचान कराता है वहीं असुरों की छवि निर्माण के लिए गाढे काले और हरे रंग का प्रयोग किया जाता है। छाऊ नकाबों का खुबसूरत व लोकप्रिय नकाब शिव और दुर्गा के कीरत-कीर्तन अवतार पर आधारित है, जो आदिवासी और संथल नकाब के नाम से भी जाना जाता है।

दो साल पहले स्थापित छऊ मुकोश शिल्पी संघ के आंकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 2012-2013 में होने वाली वार्षिक कमाई 76 लाख रुपए थी जो संघ के आने के बाद 2015-2016 में 1.13 करोड़ तक पहुंच गई। साथ ही हर परिवार की कमाई 5500 रुपए है।

इनकी निम्न विशेषताएं है

आकाः बड़ा, मध्यम, छोटा

लंबाईः 45*50 इंच, 18*12 इंच, 5*6 इंच सजावट को बढाने के लिए इसे 2 फीट तक लंबा किया जा सकता है।

वजनः 6 किलो, 3 किलो, 25 ग्राम

रंगः रंगबिरंगा