कुम्हार जाति
कुम्हार जाति                कुम्हार शब्द का जन्म संस्कृत भाषा के "कुंभकार" शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ है-"मिट्टी के बर्तन बनाने वाला"। द्रविढ़ भाषाओं में भी कुंभकार शब्द का यही अर्थ है। "भांडे" शब्द का प्रयोग

कुम्हार जाति

नवोत्थान    14-Jul-2022
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कुम्हार जाति              


कुम्हार जाति 1
 

कुम्हार शब्द का जन्म संस्कृत भाषा के "कुंभकार" शब्द से हुआ है, जिसका अर्थ है-"मिट्टी के बर्तन बनाने वाला"। द्रविढ़ भाषाओ में भी कुंभकार शब्द का यही अर्थ है। "भांडे" शब्द का प्रयोग भी कुम्हार जाति के सम्बोधन के लिए किया जाता है, जो की कुम्हार शब्द का पर्याय है। भांडे का शाब्दिक अर्थ है- बर्तन। अमृतसर के कुम्हारों को "कुलाल" या "कलाल" कहा जाता है, य शब्द यजुर्वेद में कुम्हार वर्ग के लिए प्रयुक्त हुये हैं। कुम्हारों को मुख्यत हिन्दू व मुस्लिम सांस्कृतिक समुदायो में वर्गीकृत किया गया है। कुम्हारों के कई समूह है, जैसे कि- गुजराती। यह विभिन्न नाम भाषा या सांस्कृतिक क्षेत्रों पर आधारित नाम है र इन सभी को सम्मिलित रूप से कुम्हार जाति कहा जाता है। मूल रूप से कुम्हार जाति को भगवान प्रजापति का वंशज कहा जाता है।

वर्तमान समाज में कुम्हार

मिट्टी को मूर्त रूप देना एक दुर्लभ कला है परंतु इस विद्या में पारांगत कुम्हारों की कला विलुप्त होने के कगार पर खड़ी है शहरों में कुम्हार परिवार की पहचान हो या ना हो करीब-करीब हर गाँव में तीन चार कुम्हार परिवार जरुर मिल जाते है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी इससे अपने को अलग नहीं कर पाए हैं। लेकिन आज करीब देश भर के 19 करोड़ कुम्हार बदतर जिंदगी बसर करने पर मजबूर हैं। पुश्तैनी धंधे से जुड़े कुम्हारों को दो वक्त की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। रेलगाड़ी में सफर करते वक्त भी ठंडा पानी रखने वाली बोतलों ने चंदिया की सुराहियों का महत्व कम कर दिया है। मिट्टी से बने मटकों की कीमत भले ही कम हो, लेकिन इसका महत्व ज्यादा है। ट्रेन में चाय पीते वक्त कई लोग आज भी कुल्हड़ों या सकोरों में चाय पीना पसंद करते हैं। दही जमाने का काम भी ज्यादातर मिट्टी के बर्तनों में किया जाता है। बढ़ते प्रदूषण से बचने के लिए प्राकृतिक वस्तुओं का इस्तेमाल करना चाहिए ऐसा वैज्ञानिक भी कहते हैं और डॉक्टरों की राय है कि फ्रिज की जगह मटके और सुराहियों का इस्तेमाल करना चाहिए क्योंकि इनमें पानी पूरी तरह शुद्ध रहता है। जबकि फ्रिज का पानी पीने से गले के रोग होने की पूरी संभावना होती है। वैसे भी शहर में भले ही मिट्टी के बर्तनों की माँग कम हो, गाँवों में आज भी इनकी माँग है। शादी के मौकों पर तो इनकी इतनी कद्र होती है कि ऑर्डर देकर मिट्टी के बर्तन बनवाए जाते हैं और तो और लोगों के घरों को मिट्टी के कलाकारों के बनाए हुए खपरैल छत एवं शीतलता प्रदान करते हैं। आजकल तो शीतरोधी घरों का जमाना है जिनमें भी मिट्टी का ही उपयोग किया जाता है।
कई कुम्हार परिवार कई प
ीढ़ियों से चाक पर अपनी कलाएँ हमें परोसा करते थे। बहुत नाज़ुक होते है चाक पर बने ये मिट्टी के पात्र, जऱा सा झटका लगता है और गिरकर चकनाचूर हो जाते हैं। किन साधारण मिट्टी को इस रूप तक लाने में कुम्हारों को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, पहले मिट्टी को एक गड्ढे में पानी से भरा जाता है। दूसरे दिन मिट्टी का गारा बनाया जाता है, इसमें से कंकड़-पत्थर आदि निकाले जाते हैं। गारे को गूँथकर मुलायम बनाया जाता है। अंत में चाक पर मटका आदि बनाया जाता है। सुराही के लिए फर्मे का इस्तेमाल किया जाता है। जब मटका, सुराहिया कोई भी अन्य मिट्टी का बर्तन धूप में सूख जाता है, तब इन कच्चे बर्तनों को भट्टी में पकाया जाता है। पकने के बाद इनमें रंगाई की जाती है। तरह-तरह से इनको सजाया जाता है तब जाकर बनती है मिट्टी में जान फूंकने वाले इंजीनियरों की कृति, जिनमें ठेलों पर कहीं आम का पन्ना बिकता दिखता है, कहीं मटका कुल्फी का आनंद लेने वालों की भीड़।

कुल मिलाकर सबको तरावट की चाह होती है। प्रतिवर्ष इनकी बिक्री में कमी होती जा रही है, ये गिरावट इतनी तेज़ी से हो रह है कि कुछ वर्षो बाद हमे ये पात्र शायद देखने को भी नसीब न हों। लेकिन हर छट पर छोटे-छोटे मटके, दीवाली के दिये, करवाचौथ के करवा ओर जन्माष्टमी की मटकी परंपराओं के साथ हमेशा जुड़ी रहेंगी हमारे साथ।

संत कबीर दास कहते हैं –
माटी कहै कुम्हार से, क्या तू रौंदे मोहि। एक दिन ऐसा होयगा, मैं रौंदूंगी तोहि।।
जब कुम्हार मिट्टी को रौंदकर उनसे सामान बनाता है तब एक तरह से वह उससे कहती है कि आज तू मुझे रौंद रहा है एक दिन ऐसा आयेगा, जब मैं तुझे रौंदूंगी। संत कबीर दास जी की ये पंक्तियाँ जहाँ नश्वरता को उल्लेखित करती है वहीं मिट्टी के मिट्टी में मिल जाने के शाश्वत सत्य को भी
स्थापित करती हैं। जी हाँ पचभूत तत्वों से निर्मित ये काया जीवन-पर्यंत भी इस माटी के मोल से उऋण नहीं हो पाती। गर्मी का मौसम और सिर्फ एक गिलास ठंडे पानी का तलबगार प्रत्येक व्यक्ति का होना गर्मियों में रोज़ाना की बात है। हालांकि गर्मी के मौसम में 40 से 46 डिग्री के तापमान और कभी-कभी उससे भी ज्यादा तापमान पर साधारणतया बिना किसी यांत्रिक सहायता के पानी ठंडा नहीं होता। शहरों में तो चलिए वाटर कूलर, चिलर और फ्रिज आदि मौजूद हैं, वो भी ख़ास वर्ग के लिए, पर आम आदमी और खासतौर पर दूर-दराज के गाँव देहातों में रहने वाले उन सुविधाओं से वंचित रहते हैं, पर गर्मियों में ठंडे पानी का आनंद वे भी लेते हैं – मिट्टी के मटकों, घड़े अथवा सुराहियों के माध्यम से। प्राचीन समय से ही मटके, सुराहियों का चलन, कला और संस्कृति का माध्यम बनकर अपने यहाँ चला आ रहा है। आज भी विद्युत आपूर्ति ठप्प पड़ जाने पर हाथ के पंखों और सुराहियाँ ही आसरा बाँधते है। कच्ची मिट्टी सुन्दर-सुघड़ आकार पाकर गर्मियों में सूखते होठ, तालू और गले को तरावट देती है। मटके अथवा सुराही के रूप में और मिट्टी को यह रूप प्रदान करने वाले कलाकार होते हैं कुम्हार या कुंभकार।

दिल्ली में कुम्हार

राजधानी दिल्ली के उत्तम नगर क्षेत्र में कुम्हारों की पूरी एक बस्ती है जो कुम्हार गली के नाम से जानी जाती है। कुम्हार कॉलोनी 46 वर्ष पहले 1972 के दौरान अस्तित्व में आई थी। तब से लेकर आज तक कॉलोनी में कुम्हार वर्ग की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती गई। अब इस कॉलोनी में कुम्हारों के 500 परिवार रहते हैं। इसमें अधिकांश राजस्थान से हैं। कुछ हरियाणा से आकर बसे थे। शुरूआत में 20-30 परिवार आकर बसे थे। आज यहाँ की आबादी लगभग 10 हजार है, जिसमें तकरीबन 6 हजार मतदाता हैं। साक्षरता की बात की जाए तो कुल आबादी का 60 फीसदी वर्ग साक्षर है। वर्तमान में यहाँ के कुम्हार अपनी जाति के अस्तित्व को बचाने के लिए अपनी कला को दिन-प्रतिदिन नया रूप में देने में लगे हुए हैं। आलम यह है कि इस कुम्हार गली में 11 राष्ट्रीय पुरूस्कार विजेता हैं। तकरीबन 5-6 पुरूस्कार विजेता हैं।

मिट्टी को नए-नए रूप और आकार देकर उसे रंगों के साथ जीवंत कर देने वाले कुम्हारों की कॉलोनी आज भी बेरंग सी नज़र आती है। यहां रहने वाले कुम्हार जाति के लोगों को भले ही उनके हुनर के लिए राष्ट्रीय सम्मान देकर सम्मानित किया गया हो लेकिन कुम्हार कॉलोनी को विकास से कोसों दूर रखा गया है। कुम्हार कॉलोनी में आज भी गलियां, सड़के कच्ची हैं। यहां रहने वाले लोगों को इलाज के लिए भी कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है।

एशिया की सबसे बड़ी कुम्हार कॉलोनियों में शुमार इस कुम्हार कॉलोनी में आज भी मशीनों का नहीं बल्कि परंपरागत चाक, भट्टी आदि का इस्तेमाल किया जाता है। हर घर के आगे फैली मिट्टी के बीच कॉलोनी के रास्ते भी कच्चे ही हैं। यहां सड़कें बनाने की बात सिर्फ चुनावी वादों तक सिमटी है। कुम्हारों की इस कॉलोनी में रहने वाले लोगों को अब विकास की बात सिर्फ एक चुनावी जुमला लगती है।

कुम्हार कॉलोनी में 23 वर्ष पहले आकर बसीं लीला प्रजापति कहती हैं, "जब हम यहां आए थे तो लगता था कि समय के साथ इस कॉलोनी का भी विकास होगा। अस्पताल, स्कूल और सड़कें बनेंगी। यहां नगर निगम का स्कूल तो खुल गया लेकिन अस्पताल और सड़कें केवल बाहरी इलाकों तक ही पहुंच सकी हैं। उत्तम नगर के अंदर बसी इस कॉलोनी की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। अब बुढ़ापे में कच्ची सड़कों पर चलने में भी डर लगता है कि कहीं गिर कर चोट न लग जाए।"

बदलते समय और डिमांड के साथ अब मटके छोड़ कर सजावट का समान बनाना शुरू करने वाले गजेन्द्र प्रजापति कहते हैं, "अब हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे भी इस मिट्टी के साथ जूझते हुए अपना जीवन गुजारें। हम चाहते हैं कि वो अच्छे स्कूलों में पढ़-लिख कर नौकरी करें, लेकिन हमारी कॉलोनी के आसपास कोई अच्छा स्कूल नहीं है इसलिए उन्हें कई किलोमीटर दूर पढ़ने के लिए भेजना पड़ता है। हर चुनाव से पहले नेता यहां स्कूल, सड़कें और अस्पताल बनवाने की बात करते हैं लेकिन चुनाव के बाद सब भूल जाते हैं।"

उपकरण


कुम्हार जाति 

चाक चलाने की डण्डी चकरेटी कहलाती है तथा यह चाक पर जिस गढढे मे फंसाई जाती है उसे गुल्बी कहा जाता है। गुल्बी का स्थान चाक पर कहां हो यह इस पर निर्भर करता है कि उस चाक पर कितनी बड़ी चीज बनाई जानी है बड़े बर्तन बनाने के लिये गुल्बी का चाक के केन्द्र से दूर होना आवश्यक है नहीं तो बर्तन गुल्बी का ऊपर तक जायेगा और चाक घुमाना मुश्किल होगा। कीला एक पत्थर के छोटे चाक में फंसा कर जमीन में गाढा जाता है उस पत्थर को पही कहते है और खूटे को कीला कहते है, ये केर की लकड़ी का बनाया जाता है। कीला अपने पर चाक को इस तरह धारण किये रहता है जिस प्रकार भगवान ने उंगली पर गोर्वधन पर्वत धारण कर लिया था। केर का वृक्ष खेर जाति का है परन्तु यह पुरुष वृक्ष माना जाता है, इसकी खासियत यह होती है कि इसकी लकड़ी घिसती या कटती कम है, इसलिये यह ज्यादा दिन काम देता है। कीला की ऊंचाई दो से तीन उंगल ऊँची रखी जाती है। ज्यादा ऊंचाई से चाक तेज घुमाते समय फिक जाने का भय रहता है साथ ही यह बन्द होने पर पैरों पर गिरने का डर भी नहीं रहता क्योंकि नीचा होने पर चाक झुकने पर जल्द ही जमीन पर आ टिकता है।

कीला चाक में जिस गडडे में
फिट होता है उसे गुल्बी कहते है। इस स्थान पर थोड़ा तेल लगाया जाता है। ताकि चिकनाई से चाक आसानी से घूमे। बर्तन काटने के लिये प्रयोग किया जाने वाला धागा छेन कहलाता है। कुम्हार इसे बहुत सिद्ध वस्तु मानते हैं। कुम्हार अपना छेन किसी भी अन्य जात के लोगों को नहीं देते, यह बड़ी पुरानी परम्परा है, इसे अपशगुन माना जाता है। कुछ कुम्हार आपस में भी एक दूसरे का छेन लेते मांगते नहीं है। चाक पत्थर का बनता है, काले पत्थर का चाक नही बनता, पत्थर वह अच्छा माना जाता है जो खन्नाटेदार आवाज देता है। चाक ज्यादा देर तक ताव में रहे इसलिये उसकी निचली सतह पर दो स्तर (घर) बनाये जाते है। छोटे ढाई फुट के चाक को चकुलिया कहते है, तीन फुट और उससे बड़े चाक, चाक कहलाते है।

आजकल पैर से चलाने वाले और बिजली की मोटर से चलने वाले चाक भी बन गये है पर पैर से चलाने वाले चाक व्यवसायिक कुम्हारों के लिये बेकार है क्योंकि वह तुरन्त ढीले पड़ जाते है। हाथ से
ुमाये जाने वाले चाक पर काम करने में अधिकतर कुम्हार दक्ष होते हैं क्योंकी वे चाक की गति के अनुसार काम करते है जैसे पहले चाक बहुत तेज घूमता है उस समय मिटटी को उठाना और उसे फाड़ना आसान होता है परन्तु बाद में वह कुछ सुस्त हो जाता है उस समय गीले बर्तन को अन्तिम आकार देकर, चाक से उतार लेना आसान होता है। यदि चाक निरन्तर तेज घूमता रहे तो बर्तन उतारा नहीं जा सकता, यही कारण है कि बिजली के चाक मे तीन गीयर होते हैं और काम करते समय गीयर बदल कर चाक की गति को नियंत्रित करना पड़त है। दिल्ली सरकार द्वारा कुम्हार गली में रहने वाले प्रत्येक कुम्हार को बिजली से चलने वाले चाक वितरित किए गए। आज के समय में यहाँ रहने वाला हर एक कुम्हार बिजली से चलने वाले चाक पर ही काम करता है।

चाक पर काम करते समय जिस बर्तन में पानी रखा जाता है उसे कुण्डी कहते है ऐसा मानते है यह कुण्डी कुम्हारो को भोलेनाथ ने दी थी। यह वही कुण्डी है जिसमें महादेव अपनी भांग गलाते थे। इसमें रखा पानी सभी प्रकार के जलों से
शुद्ध माना जाता है। बर्तन की ठुकाई के लिये प्रयुक्त किये जाने वाले औजार थापा और पिण्डी कहलाते है। थापा लकड़ी से बनता है और पिण्डी पत्थर की। पत्थर कचिकना होना जरुरी है।

हरियाणा से खरीदते हैं मिट्टी

मिट्टी कही मिली भी तो वह काम की ही हो यह जरुरी नहीं है। आजकल सबसे अच्छी मिटटी हरियाणा में ही मिलती है वहां किसी से मिल मिलाकर या थोड़े पैसे देकर मिटटी ले आते है, पर कोई भरोसा नहीं रहता कभी भी कोई सरकारी आदमी पकड़ लेता है गाली सुनाता है मारता है और पैसे मांगता है यदि ज्यादा कुछ कहो तो गधो को कांजी हाउस में बन्द करवा देते है। सरकार ने इस सम्बन्ध में अब तक कोई नीति नहीं बनाई, सरकार अगर चाहे तो कोई पहाड़ या जगह निश्चित कर दे और साल भर का पैसा ले लिया करे। मिट्टी के दिए व अन्य बर्तनों को बनाने के लिए चिकनी, दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है, जबकि मटका बनाने के लिए दानेदार लाल मिट्टी उपयुक्त रहती है। यहाँ के कुम्हार बताते है कि वे हरियाणा से तीन हजार रुपये में एक ट्रॉली मिट्टी खरीदते है।

एक ट्रॉली मिट्टी के लगभग 30 हजार दिये तैयार किये जा सकते है। बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को पाँच बार भिगोना पड़ता है। उससे पूर्व मिट्टी के कंकड़, पत्थर व रेशों को भी अलग किया जता है। मिटटी कंकड़ और रेत रहित होन चाहिये उसमें लोच होना आवश्यक है। कुम्हार को इसका पता मिटटी खोदते समय ही लग जाता है, जैसे ही मिटटी खोदने के लिये गैंती जमीन पर मारते है तब यह जमीन रेवडी सी खिल जाय तो यह मिटटी बहुत अच्छी होगी। इस मिटटी का डिल्ला फोड़ने पर छार-छार हो जायेगा। मिटटी को घर लाकर पहले उसे फोड़ा जाता है, फिर उसे निबेर कर उसके कंकड पत्थर अलग किये जाते है, फिर उसे सुखा लिया जाता हैमिटटी को भिगोने से पहले उसे सुखाना जरुरी है नहीं तो मिटटी पूरी तरह से फूलती नहीं है। उसमें मिंगी रह जाती है, साथ ही सूखी मिटटी फुलाने पर बहुत जानदार बनती है।

मिटटी फुलाने के लिये एक विशेष गढढा बनाया जाता है इस गढढे का स्तर बनाने के लिए चारों ओर पत्थर लगा दिये जाते हैं, इसे मिठार कहते हैं। अच्छी मिटटी जल्दी गल जाती है। मिटटी गल जाने पर उसे तैयार किया जाता है। इसके लि मिटटी में गोबर और थोड़ा राख मिलाते हैं। चार तस्सल मिटटी में एक तस्सल घोड़े के लीद होती है और आधा तस्सल कण्डे की राख मिलाते है और मिटटी की खुदाई करते हैं। खुदाई करने से ही मिटटी में लोच पैदा की जाती है। लीद को मीसन कहते हैं। इससे बर्तन फटते नहीं हैं और राख बिछा कर मिटटी खूदने से मिटटी में दूसरी मिटटी नहीं मिल पाती। मीसन मिलाने से बर्तन अच्छा पकता है। मिटटी तैयार हो जाने पर उसके गोंदे बना लि जाते है। गोंदे इतने ही बड़े बनाए जाते हैं, जितने चाक पर काम करने के लिये उपयुक्त हों। बड़े काम के लिये बड़े गोंदे बनाये जाते है क्योंकि मिटटी ज्यादा लगती है जबकि दिये या डबूले बनाने के लिये छोटे गोंदे बनाए

जाते हैं क्योंकि एक ही गोंदे में बहुत काम हो जाता है।

पूरा परिवार माटी पर आश्रित

कुम्हार राजेन्द्र ने बताया कि हमारे पिता जी यह काम करते थे उसी काम को हम आगे बढ़ा रहे हैं इससे हमारे परिवार के नौ सदस्यों का खर्चा चलता है हम चाह कर भी कोई दूसरा काम नहीं कर सकते है पूर्वजों ने जो शुरू किया उसे निभाते आ रहे हैं पहले यह काम अच्छा चलता था, लेकिन अब मिट्टी का दीया कोई खरीदना नहीं चाहता पूजा पाठ के लिए खरीदते भी है तो मोल भाव जरूर करते है वहीं पानी पड़ने के कारण कई बार समान बर्बाद भी हो जाता है। अब 15000 प्रति माह में क्या तो खाएं और क्या ही बचाए ये कुम्हार।

भविष्य तो आज के युवा पीढ़ी पर ही टिका है लेकिन यहां के युवा और उनके परिवार इस कला को बेहतर रोजगार नहीं समझते हैं।

नए बदलाव
अब घरों को खूबसूरत बनाने के लिए मिट्टी के कुछ पात्रों का उपयोग आम बात हो गई है। सिरेमिक – इस शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के केरामोस शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है ‘कुम्हार की मिट्टी। आजकल इस शब्द का उपयोग सभी प्रकार की पॉटरी के लिए किया जाने लगा है। विभिन्न प्रकार के सिरेमिक भिन्न-भिन्न प्रकार की मिट्टियों से बनाए जाते हैं, जिनमें फ्लिण्ट, फैल्सपार और चा
ना स्टोन जैसे पदार्थ मिलाए जाते हैं। मिट्टी और रेत के इस प्रकार के मेल से पात्र बनाए जाते हैं। बेक्ड पात्रों को टेराकोटा कहा जाता है। कम से कम 1200 डिग्री सेल्सियस के तापमान के अन्दर इन मिट्टी के उत्पादों को पकाया जाता है। आधुनिक यंत्रों, उपकरणों से बनाए जाने वाले इन मिट्टी के पात्रों की भी विधि वही है जो सामान्य मटके और सुराही बनाने की होती है, लेकिन इनमें खासतौर से ज्यादातर ख़ूबसूरत पात्र और वस्तुएं शरीर को ठंडक और तरावट देने की जगह घर में सजकर आँखों को तरावट देते हैं।
कुम्हार वर्ग ने आज लोगों को मिट्टी की ओर वा लाने के लिए नए डिजाईन के बर्तन बना रहे है, जैसे मिट्टी क फ्रिज, कुकर, कढ़ाई, तवा, पानी का फिल्टर, नए डिजाइन के मटके, बोतले, दाल-चावल, साग-सब्जी बनाने की हांड़ी आदि बर्तन बनाते हैं।

मटका

वे मटके के बारे में बताते है यहां बनाये जाने वाले मटको के आकार के आधार पर कई नाम होते है, जैसे मथनिया, ढिल्ला, गागर, मठोला और सबसे बड़ा मटका, गोरा कहलाता है यह इतना बड़ा होता है कि इसमें दो तीन टंकी पानी आ जाता है। गोरा बनाना हर कुम्हार के बस की बात नहीं है इसे बनाने के लिये कौशल के साथ साथ लम्बे हाथ पैरों का होना भी आवश्यक है क्योंकि छोटे हाथों वाला ज्यादा बड़ा मटका नहीं बना सकता। नाद और गोरा में फर्क यह होता है कि नाद तो शंकु आकार की चौड़े मुंह वाली होती है पर गोरा का मुंह किनारदार मटके जैसा होता है। इसका मुंह तो चाक पर बनाया जाता है पर निचला भाग, थापा-पिण्डी से ठोक-ठोक कर बनाया जाता है मठोला का मुंह चौड़ा होता है और गागर सकरे मुंह की होती है। मौन का मुंह भी छोटा होता है। एक टीरा होता है, यह बनता तो ढिल्लासाज ही है पर इसके पेट पर एक धार बना दी जाती है यानी तला तो गोल ही होता है पर बीच की धार से गर्दन तक एक ढाल बनाया जाता है। टीरा बनाना कुम्हार की दक्षता का परिचायक माना जाता है। टीरा और मठोला की बनावट एक सी होती है परन्तु मठोला बड़े मुंह का होता है। मठोला और टिरा मही मथने के काम आते है। मौन और गागर की बनावट एक सी होती है परन्तु मौन की गर्दन थोड़ी ऊंची होती है। सुराही, गमला, कूढाँ आदि सभी चाक पर ही बनाये जाते है पर इनके लिये प्रयोग की जाने वाली मिट्टी की मुलामीयत में अन्तर होता है। जो वस्तुऐं नीचे संकरी रहकर ऊपर की और फैलती है उनके लिये थोड़ी कर्री मिटटी लेते है क्योंकि पतली मिटटी के ऊपर फैलने पर पसर जाने का खतरा होता है। यही कारण है कि कूढाँ, गमला या सुराही के लिये एक दिन पुरानी तैयार मिटटी प्रयोग में लाई जाती है।

कुम्हार कॉलोनी, बिंदापुर, उत्तम नगर, दिल्ली के प्रधान हरकिशन से खास

बातचीत।

सवालः आप कुम्हार परिवार से हैं। आपने ये काम कब शुरू किया और आपके लिए कुम्हार होना क्या मतलब रखता है? क्या आप खुद को कलाकारों की श्रेणी में रखते हैं?

जवाबः कुम्हार कोई भी व्यक्ति बनता नही है, ये हमारा पुशतैनी काम है हमारे बाप-दादा के समय से चला आ रहा ये सिलसिला मुझमें भी बचपन से ही बस गया। कु्म्हार होने का मतलब है मिट्टी के करीब होना। हां बिलकुल मैं खुद को कलाकार के रुप में देखता हुं क्योंकि मिट्टी को मढना उसे एक आकार देना आसान बात नहीं और एक कलाकार की पहचान उसके कपड़ों से हो जाती है एक कुम्हार अपने काम में इतना खो जाता है कि उसे अपने न चहरे की सुध होती है न कपड़ों की। ये काम तो बचपन से ही मैने सीखा था सभी इस काम में मशगूल रहते थे तो मिट्टी से खेलने से शुरुआत हुई और आज यहां पहुंच गए।

सवालः कुम्हार की जाती के विषय में कुछ बताइए साथ ही समाज मे इस जाती का क्या अस्तित्व व योगदान रहा है?

जवाबः चुंकि ये एक जाती है इस काम को करने वाले प्रजापति जाति के लोग होते हैं। ये माना गया है कि हम दक्ष प्रजापति के वंशज हैं। कुम्हार जाती के कार्यों के प्रमाण हड़्प्पा मोहेन-जो-दारो के समय में भी मिलते हैं। हर शुभ काम में हमारी मौजुदगी होती है चाहें वो दिवाली हो, शादी-ब्याह हो या फिर कोई भी शुभ मंगल पुजनीय कार्य। लेकिन एक मतभेद हुआ करता था जिसे हम जातीवाद कहते हैं। जातीवाद जैसी कुरीतियों के शिकार हम भी हुआ करते थे। मतलब हमारे हाथों से बनाए गए बर्तनों में हमें ही पानी तक नही पिलाया जाता था। खैर जैसे समाज बदला रीतियों में भी बदलाव आया है। आज के हालात पहले से काफी बेहतर हैं। आज मैं खुद यहां इस कॉलोनी का प्रधान हूं लोग बहुत सम्मान करते हैं। अच्छा लगता है कुम्हारों के जीवन में ऐसा बदलाव देखकर।

सवालः आप कुम्हारों के साथ-साथ सामाजिक जनजीवन में किस प्रकार के बदलावों को महसूस करते हैं? ये बदलाव लाभकारी हैं या इनके कारण जीवन और कठिन हो गया है?

जवाबः देखिए बदलाव हर समाज में होता है। वो बात और है कि हमारे समाज में जिस तेजी से बदलाव आए उन्होंने कुम्हार को कहीं न कहीं शोषित वर्ग की श्रेणी में धकेल दिया है। इसके अलावा सामाजिक गतिविधियों में, खान-पान, बर्तेनों के प्रयोग में, बड़ा बदलाव हुआ है। ब्रिटशरों ने अपनी सुविधा के लिए उस समय में स्टील, अलुमिनीयम, पीतल के बर्तेनों में खाना बनाने-खाने की विधा शुरू की और आज भी हर घर में इनका प्रयोग जोरों-शोरों से हो रहा है। आप जानती होंगी कि अब तो विज्ञान ने भी साबित कर दिया है कि हमारी अधिकतर बिमारियों का कारण ये स्टील और लोहे के बर्तन ही हैं। ये खाना बेशक जल्दी पकाते हैं लेकिन स्वास्थ्य संबंधित अधिकतर बिमारियों का कारण यही हैं। खाने का 90% तक का पोषण तो कुकर की तीन-चार सीटियों में ही चला जाता है।

सवालः आप आज के समाज को कुम्हारों के साथ किस प्रकार से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं?

जवाबः आज के बदलते हुए रीति-रिवाजों के कारण धर्म ही एकमात्र कड़ी है जिसने हमारी रोजी-रोटी को बनाए रखा है। साथ ही आपको ये बताना चाहुंगा कि आजकल समाज के लोगों ने हमे अनोखे अंदाज में ही अपनाया है। आज कुम्हारों द्वारा बनाई जाने वाली चीजों का सजावट में खास प्रयोग किया जाता है। चाहें वो फूलदान हो या घर में लगने वाली लटकन ऐसी सभी चीजों का घर की शोभा बढाने में प्रयोग किया जाता है।

सवालः बदलाव के इस दौर में कुम्हारों के सामने आर्थिक समस्या हैं इससे उभरने के लिए क्या सरकार का कोई योगदान है?

जवाबः देखिए इस विषय में ये कहना बिलकुल गलत नही होगा कि कुम्हारों का जीवन और काम जब से वैश्विकरण हुआ है तब से ठप पड़ गया है। इससे कई फायदे भी हुए हैं जैसे तकनीकी रुप से कहुं तो जहां हमें मिट्टी को काटने के लिए और उसे आकार देते हुए बर्तन व वस्तुएं बनाने के लिए आधे दिन तक का समय लग जाया करता था वो चंद मिनटों मे हो जाता है। जैसे कि ये जो मिट्टी को आकार देने वाली मशीन है इससे लगभग एक या दो किलो की मिट्टी से 1 घंटे में 10 फुलदान बन जाते हैं। ये एक अंदाजा है क्योंकि इसकी ये काम करने के तरीके से बदलती रहती है। समस्याओं की बात करूं तो सबसे बड़ी समस्या है खत्म होती अच्छी मिट्टी वैसे तो हमें हरियाण से मिट्टी मिल जाती है लेकिन दिन ब दिन उसकी गुणवत्ता कुछ कम होती जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है प्रदुषण। मिट्टी को कितना भी छान लो उसमें प्लास्टिक, कांच, इत्यादि के कण मिल ही जाते हैं। इसके साथ है कुम्हारों के सामान की बिक्री आप यकीन नही करेंगे की 90% कुम्हार की वस्तुए कुम्हार जाति के लोग ही बेचते हैं। वे ज्यादा पढे-लिखे नही है इसलिए वो अपना नफा-मुनाफा नही समझ पाते हैं। इसको आप ऐसे समझ सकते हैं कि जिस घड़े की लागत में कुम्हार के 20 रुपए खर्च होते हैं उसी घड़े की कीमत बाजार में 50 रुपए होती है। कुम्हार संतुष्ट है क्योंकि वो मानते हैं कि इसमे उनकी कोई भुमिका नही है।

इसको आप उनकी बेवकुफी कहो लेकिन ये उनकी अपने ग्राहक को भगवान समझने की नीति जहां एक कुम्हार 50 रुपए में घड़ा देगा वहीं दुसरा कुम्हार 40 में भी देने को राजी हो जाएगा। इसके पीछे उनका अनपढ़ होना भी बड़ी परेशानी है। सरकार के बारे में तो बस एक बार लालु यादव की सरकार में कुम्हारों को बढावा देते हुए रेलवे स्टेशन पर कुल्लहड़ों को बनाने-बेचने का सिलसिला शुरू हुआ था। वो काम अच्छा भी चला लेकिन उसे कुछ समय के बाद बंद कर दिया गया।

सवालः आप राष्ट्रिय स्तर पर पुरस्करित किए जा चुके हैं, आपको शिल्प गुरू की उपाधि से भी सम्मानित किया गया है। इस कॉलनी मे भी 15-20 परिवार राष्ट्रिय पुरस्कार से सम्मानित किए जा चुके हैं। सरकार आपको सम्मानित करती है वो कला को दुनिया भर में दिखाने के लिए आप जैसे कलाकारों को निरंतर भेजती रहती है इसे आप अपनी उपलब्धी मानते हैं?

जवाबः हां बिलकुल मतलब अच्छा लगता है जब भी इस प्रकार से सम्मान मिलता है। इससे पहचान भी बढती है और बेहतर काम करने का प्रोत्साहन भी मिलता है लेकिन पुरस्कार मिलने के बाद मैं अपने और यहां के लोगों के जीवन में कोई खास बदलाव नही देखता क्योंकि हमे कौन जानता है और मैं भले ही गुरु की उपाधि पर हूं लेकिन मेरे पास न कोई जमीन है, न कोई साधन है, जिससे मैं सिखा सकूं लोगों को, बच्चों को, जो इसमें रुचि रखते हैं।

मैने फिर भी अपने लोगों को कहा है कि आप 24 घंट में कभी भी आ सकते हैं जब भी कोई आवश्यकता हो।

सवालः आप आज के समय में कुम्हारों की पहुंच के बारे में क्या सोचते हैं? और आप लोग खुद क्या-क्या प्रयास कर रहे हैं कुम्हारों के विस्तार के लिए? क्या आप खुद उन नए किस्म के बर्तनों का प्रयोग करते हैं जो कुम्हारों द्वारा ही बनाए जाते हैं?

जवाबः आपको एक बात बताता हुं मैं एक बार एक पैकेजिंग ब्रांडिंग की वर्कशॉप में गया था वहां जाकर एक बात समझ आई कि किस तरह से लोगों को पैकेजिंग और विज्ञापन के जरिए खरीद-फरोख्त करने के लिए मजबूर किया जाता है। हम कुम्हारों के पास न तो पैसा है और न ही पैकेजिंग और विज्ञापन करने का कोई साधन। यहां तक कि सरकारी तंत्र भी इसमें निवेश करने से बचता है क्योंकि इसकी पैकेजिंग में बहुत खर्चा आता है। मिट्टी के बर्तनों को ज्यादा जगह की जरुरत होती है क्योंकि ये बहुत ही नाजुक होते हैं और टुटने का डर होता है। इसके विज्ञापन करने के साधन तो है ही नही लोगों के पास पैसा ही नही है न ही हुनर है कि कैसे इस क्षेत्र में काम हो।

आप ही बताओ अब लगभग हर कोई जानता है कि स्टील के बर्तन कितने खतरनाक है लेकिन फिर भी कोई इस क्षेत्र में कोई कार्य नही कर रहा है। हम न तो इतने पढे-लिखे हैं कि इस काम को कर पाए और वही बात की कोई साधन है नही।

हालांकि आजकल मिट्टी के कुकर,तवा,घड़े,फ्रिज वगैरह कई तरह के बर्तन बाजार में आ गए हैं लेकिन जब कारिगर कम है तो जाहिर है उनका दाम भी ज्यादा होगा। कम ही लोग उनका उपयोग करते हैं। हम भी खुद उनका ज्यादा प्रयोग नही कर पाते। आपकी जानकारी के लिए बता दुं उसमें लागत भी ज्यादा आती है। कलाकारी का भी अनोखा रुप उसमें होता है और इसी वजह से हर कोई वो बर्तन नही बना सकता।

सवालः कुम्हारों की आने वाली पीढी का इस काम के प्रति कैसा रवैया है?

जवाबः बच्चों का तो जी ऐसा है कि उनका मन है अगर वो इस काम को करना चाहते हैं। हम उन्हें प्रोत्साहन देते हैं लेकिन उनके ऊपर इसकी कोई जिम्मेदारी नही या कोई दबाव नही है। आपसे झुठ क्यों बोलुंगा मा-बाप खुद नही चाहते कि उनके बच्चे इस क्षेत्र में आगे बढें क्योंकि पैसा ते इसमें है नही आप जानती हैं। कोई ग्रोथ भी इसमें खास नही है बाकि करने पर है, कलाकारी पर है।

सवालः आपने मिट्टी से कई तरह के लघु मुर्तियों को बनाया है उसके बारे में कुछ बताइए और ग्लेजिंग के बारे में कुछ बताइए।

जवाबः मैने कई वर्कशॉप किए हैं और अलग लोगों से मिलकर मैने कई तरह की नई चीजों को सीखा समझा। अपनी उन्हीं तमाम प्रेरणाओं से ही मैने इन नई तरह की मिट्टी की कलाकृतियों को बनाया। लोगों को ये पसन्द भी खुब आता है। वे ऐसे लघु मुर्तियों को काफी सराहते हैं। खासकर ये उनके घर की साज-सज्जा को बढाता है तो इसलिए वे इसे काफी पसन्द करते हैं। ग्लेजिंग मिट्टी चीजों को नया रुप देने का तरीका है। इसके लिए इसे काफी लंबे समय तक बेक करके अलग-अलग तरह के रंगों का इस्तेमाल करके काफी चिकना और सुंदर रुप दिया जाता है। इसका बड़ा उदाहरण है चाय के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले कप और उसी तरह की और बर्तन हैं। इस तकनीक से भी कुम्हारों के कार्यक्षेत्र में काफी बदलाव आया है।

चाइनीज वस्तुओं के आने से मांग घटी बाजार में

यहाँ के कुम्हारों को कहना है कि चाइनीज लाइटें आने से मिट्टी के दीये की मांग घट गयी है रंग बिरंगी लाइटों के आगे कोई भी मिट्टी का दीया खरीदना नहीं चाहता सस्ते व डिजाइनर चाइनीज लाइटों के बाजार में उपलब्ध होने के कारण अब लोग मिट्टी के दीये में घी या तेल डालकर जलाने की जहमत नहीं उठाना चाहते इससे दीपावली में दीये की बिक्री कम हो गयी है जो खरीदते भी हैं, वे मोल भाव कर लागत व परिश्रम भर ही चुकाना चाहते हैं हमारी चीजों पर लोग पैसा खर्चा करना नहीं चाहते है पहले बच्चों को दीपावली के मौके पर मिट्टी के खिलौने, घोड़ा, हाथी, शेर, गुड्डे, गुडि़या जरूर खरीदे जाते थे अब इसकी जगह प्लास्टिक के खिलौने ने ले ली हैमिट्टी की वस्तुओं का महत्व दिनों दिन कम होता जा रहा है कुम्हारों ने बताया कि कुछ लोग आज भी हैं, जो मिट्टी की वस्तुओं के महत्व को समझते हैं ऐसे लोगों की वजह से ही हम लोग टिके हुए हैं

आधुनिकता के दौर में कुम्हार जाति का रोजगार

आधुनिकता के दौर में पूजा आदि के आयोजनों पर प्रसाद वितरण के लिए इस्तेमाल होने वाली मिट्टी के प्याले, कुल्हड़ एवं भोज में पानी के लिए मिट्टी के ग्लास आदि भी प्रचलन में अब नहीं रह गए हैं इसकी जगह अब प्लास्टिक ने ले ली है। पारंपरिक दीप की जगह मोमबत्ती एवं बिजली के रं बिरंगे बल्बों ने ले ली है।

आने वाले समय में ऐसा दिन ना आ जाए जब कभी हमें अपनी आने वाली पीढ़ी को कहानी सुनानी पड़े की, "एक था कुम्हार", जिस तरह से कुम्हार के जीवन यापन करने वाले बाजार पर चीन जैसे दीपक हावी होते जा रहे हैं। उससे तो यही लगता है की शायद कुम्हार का घूमता हुआ चाक रुक जाएगा और कुम्हार सिर्फ कहानियो मे ही सुनने को मिलेंगे। हाडतोड़ मेहनत के बाद दीये बनाने बाले कुम्हार फुटपाथ पर दूकान लगाकर जहां बाजार मे एक एक ग्राहक को तरस रहा है, वहीँ चाईनीज सामानों की बिक्री हाथों हाथ हो जाती है। इस काम में काफी श्रम लगता है और मुनाफा कम है लेकिन इनमें भारतीय परम्परा को ज़िंदा रखने का जूनून है

वजूद की तलाश में कुम्हार

कुम्हार की चाक मिट्टी आज अपना ही वजूद तलाश रही है। कड़ी मेहनत से मिट्टी के दिये और बर्तन बनाने वाले इन कुम्हारों को आज खरीददार नहीं मिल रहे हैं। एक दौर था जब कुम्हार दिपावली का बेसब्री से इंतजार करते थे। उस समय मिट्टी से बने दियों की बहुत मांग रहती थी और बाजारों में इनके खरीदारों की भीड़ नजर आती थी। मगर अब बदलते दौर के साथ इन मिट्टी के दियों और बर्तनों को बनाने वाले कुम्हार इक्का-दुक्का ही नजर आते हैं। अब चीन से आए रंग-बिरंगे डिजायनर दीपों की डिमांड ज्यादा है। इसका मुख्य कारण है संगठित बाजार, सरकारी समर्थन की कमी और विदेश वस्तुओं की भरमार। पहले जिन गांवों में कुम्हारों की भरमार होती थी, वहां अब बहुत कम ही कुम्हार ही बचे हैं। कहीं ऐसा न हो कि आने वाले समय में कुम्हार कहानियों में ही बचें।

पूजा पाठ में होती है बिक्री

मूल रूप से अलवर, राजस्थान के रहने वाले कुम्हार राजेन्द्र कुमार, जो कि पिछले 35 सालों से दिल्ली की कुम्हार गली में रह रहे हैं बताते हैं कि वो मिट्टी के दीये व बर्तन बनाते हैं इनके बनाये दीये दूसरों के घरों को रोशन करते हैं, लेकिन इनके परिवार की आर्थिक स्थिति नहीं सुधर सकी चाइनीज वस्तुओं के कारण वह अपने आपको उपेक्षित महसूस करने लगे है वह बताते हैं कि एक समय था जब घरों में मिट्टी के दीये जलाने को लोग शुभ मानते थे हर घर में मिट्टी के दीपक जलाये जाते थे लेकिन अब लोग इसे खरीदना तक जरूरी नहीं समझते उनकी जगह चाइनीज दीयों ने ले ली है अब तो बस पूजा पाठ में ही थोड़ी बहुत खरीदारी होती है बाजार में टिके रहने के लिए पूजा पाठ में उपयोग किये जानेवाले दीये, कलश आदि को नया लुक देने के लिए उसे रंग बिरंगे रंगों से पेंट भी करते हैं

रोज सुबह अपने मिट्टी के बर्तनों को देखते हैं

राजेन्द्र कुमार ने भी बचपन में ही बड़े-बुर्जुगों की देखा-देखी चाक से दोस्ती कर लीआखिर, इसके अलावा किसी और को कुछ आता भी तो नहीं था। रोज सुबह अपने बनाए मिट्टी के बर्तनों को देखते हैं। उससे होने वाले मुनाफे के बारे में सोचते हैं और पूछने पर दर्द कुछ इस अंदाज में निकलता है। इतनी मेहनत और लगन से बनाए गए मिट्टी के बर्तनों को आज खरीददार नहीं मिल रहेबदलते वक्त के साथ मिट्टी की सुराही की जगह फ्रीज ने ले ली है। ऐसे में सुराही और घड़े या तो गरीबों के घर पहुंच रहे हैं या फिर फैशन के तौर पर रईसों के घर। कुम्हार की कमाई ऊंट के मुंह में जीरा जैसी अब चीन से आए रंग-बिरंगे डिजायनर दीप मिट्टी से बने परंपरागत दीयों को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। हालांकि, शादी-ब्याह और पूजा-पाठ के मौकों पर मिट्टी दीयों की मांग जरुर बढ़ जाती है...जो दम तोड़ती कुम्हार की चाक को थोड़ी राहत मिल जाती है। चाक पर मिट्टी से सुन्दर बर्तन गढ़ने वाले कुम्हार ज्यादातर गांवों में ही मिलते हैं। मिट्टी पर कोमल हाथों से कारीगरी का काम एक पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को सीखाती रही है। जानकर हैरानी होती है कि दिल्ली जैसे शहर में अभी भी कुम्हारों की पूरी एक वस्ती है और यहाँ भी ये सिलसिला बिना रुके चल रहा है। लेकिन, इससे होने वाली कमाई गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए ऊंट के मुंह में जीरा जैसी है। शायद, इसीलिए कुम्हारों को दुनिया वीरानी लग रही है।

संघर्ष का जीवन

आज कुम्हार का ठहरा हुआ चाक आने जाने वाले हर इंसान से यही गुजारिश करता हुआ प्रतीत होता है एक समय ‍वह भी था जब ये चाक निरंतर चलता रहता था एक-से-एक सुंदर व कलात्मक कृतियां गढ़ कर प्रफुल्लित और गौरवान्वित हो उठता था आज ऐसा समय है, जब किसी को उसकी आवश्यकता नहीं है

न जाने कितने कुम्हारों ने तो उसका परित्याग ही कर दिया है और कुछ चाहकर भी उसको निर्जीव रखने को विवश हैं
बहुत पुरानी नहीं, महज 15-20 वर्ष पहले तक भी हम सभी ने मिट्टी के घड़े, सुराही, सकोरों, कुल्हड़ों, गुल्लक का घर-घर में प्रयोग होते हुए देखा है खास तौर से दिवाली जैसे त्योहार पर तो मिट्टी से निर्मित वस्तुओं की सौंधी-सौंधी महक से पूरा वातावरण गुलजार हो जाता था. मिट्टी के दीपक, मूर्तियां, साज-सज्जा का सामान, फूलदान से जहां बाजार भर जाता था, वहीं घर-घर में इनको सजाकर त्योहार का आनंद दोगुना हो जाता था परंतु आज वर्तमान में परिदृश्य एकदम परिवर्तित हो चुका है मिट्टी से निर्मित होने वाली हर वस्तु का विकल्प आज उपलब्ध है जो टिकाऊ है, आंखों को लुभाने वाला है, किफायती है, फिर क्यों हम भला पुरानी लीक से हटकर नये स्वरूप की ओर कदम न बढ़ायें? निरंतर परिवर्तन प्रकृति का नियम है हर जीव को अपनी उत्तरजीविता के लिए उस परिवर्तन के साथ सामंजस्य बनाना ही पड़ता है परंतु प्रवृत्ति का परिवर्तन तो मानव के अपने व्यक्तिगत चिंतन से ही संभव होता है हम हर दिन बहुत तेजी से आधुनिकता को अपने जीवन में अंगीभूत करते जा रहे हैं और अपनी परंपराओं को उतनी ही तेजी से अपने जेहन में से नकालते जा रहे हैं

जीवन में समय के साथ तेजी से आगे बढ़ जाना ही बस महत्वपूर्ण नहीं है, कभी-कभी जीवन में ठहराव, अपनी प्राचीन परंपराओं और प्रचलनों से जुड़े रहना भी अत्याधिक आवश्यक है
आज की युवा पीढ़ी ने जिस युग में आंखें खोली हैं, वहां चारों तरफ आधुनिकता की चकाचौंध है विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने जीने की शैली को पूर्ण रूप से बदल दिया है जहां बच्चे पहले मिट्टी में खेलकर बड़े होते थे वहीं अब बच्चे टीवी, मोबाइल, लैपटॉप, वीडियो गेम्स में ही पलते हैं जहां बच्चे पहले मिट्टी की गुल्लक में एक-एक रूपये डाल कर आनंदित हो उठते थे, वहीं अब बच्चे ई-मनी के सिद्धांत को ही समझते हैं बच्चे तो कोरे कागज के समान होते हैं जिस वातावरण में इनकी परवरिश होती है और अपने प्रारंभिक काल में जो भी वह देखते-सीखते हैं, वहीं सब संस्कारों और मूल्यों के रूप में आत्मसात कर लेते हैं इसी क्रम में हमारे पर्व-त्योहार हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखने का एक सशक्त माध्यम हैं हमारी मान्यताओं और प्रचलनों को जीवित रखने में इनका सबसे अधिक योगदान है अच्छाई का महत्व, परस्पर सहयोग, समर्पण, सहिष्णुता, त्याग जैसे महत्वपूर्ण मूल्य हमारे पर्व-त्योहारों में प्रचलित पौराणिक कथाओं और प्रचलनों द्वारा बच्चों के मानस पटल पर अंकित हो जाते हैं

बदलाव के दौर में

यहाँ के कुम्हार गली के प्रधान हरकिशन बताते है कि इनकी पिछली कई पीढियां इसी पेशे में थी। आज यहाँ शहर की बसावट होने से ज्यादातर लोग मिटटी के बर्तनों के बदले पैसा देते हैं परन्तु पहले अनाज और पैसा दोनों ही मिल जाता था कुछ प्रचलित रुढ़ प्रथाओं का ही प्रभाव है जो आज भी गांव क्षेत्र से कुछ अनाज मिल जाता है जैसे गर्मियों में जब चैत माह में गेंहू की फसल कटती है तब कुम्हार खलिहान में मिटटी के बर्तन देने जाते हैं, मिटटी के बर्तनों के एक सैट को एक जहल कहते है और एक जहल में एक मथनियां और एक ढिल्ला होता है। तो उसके बदले तीन पूला अनाज मिलता है।

पर्व त्योहार के आते ही कुम्हारों के चाक की रफ्तार तेज हो जाती है कुम्हार परिवार के लोग दिन रात एक कर मिट्टी के बर्तन बनाने में लग जाते हैं बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक सभी इस काम में हाथ बंटाते है इससे उनके परिवार का खर्चा चलता है इसे बनाने से लेकर बेचने तक में घर की महिलाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं हालांकि वर्तमान युग में मिट्टी के बर्तन की मांग घट गयी है चाइनीज वस्तुओं के बाजार में आने से मिट्टी के खिलौने व बर्तन की मांग घट गयी है बाजार मे चाइनीज वस्तुओं की भरमार से कुम्हारों के परिवार के सदस्य इस पेशे से दूर हो रहे हैं चाइनीज उत्पादों के कारण उनकी आर्थिक स्थिति पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है