श्याम बेनेगल
 श्याम बेनेगल  अस्सी के दशक में एक हलचल हुई थी। फिर धीरे-धीरे सब कुछ स्थिर हो गया। इसकी पड़ताल करते हुए सिनेमा को समझाने वालों ने दावा किया था कि यह ‘नया सिनेमा’ का तरंग है। अगर इसी बात को मान लिया जाए तो वह तरंग आया तो मजबूती से था

श्याम बेनेगल

नवोत्थान    14-Jul-2022
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श्याम बेनेगल

 
Shyam Benegal

अस्सी के दशक में एक हलचल हुई थी। फिर धीरे-धीरे सब कुछ स्थिर हो गया। इसकी पड़ताल करते हुए सिनेमा को समझाने वालों ने दावा किया था कि यह नया सिनेमा का तरंग है। अगर इसी बात को मान लिया जाए तो वह तरंग आया तो मजबूती से था, लेकिन टिका नहीं। समय के साथ उसकी शक्ति क्षीण हो गई। अब तो इस पर किसी किस्म की चर्चा को भी लोग पुरानी और अप्रासंगित चीज बताते हैं। लेकिन, यहां उस दौर के सिनेमा को याद करने की एक जरूरी वजह है। क्या श्याम बेनेगल को अलग कर नया सिनेमा देखा-समझा जा सकेगा? इसका एक ही जवाब है- नहीं।

उन्होंने पिछले दिनों एक सराहनीय काम किया है, जिसकी चर्चा अधिक नहीं हुई। श्याम बेनेगल ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र को अपनी 2500 उपयोगी किताबें सौंपी हैं। ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं है, जहां कोई सक्रिय फिल्मकार अपने संदर्भ ग्रंथों की थाती सार्वजनिक उपयोग के लिए सौंप दे। पर, श्याम बेनेगल की बात ही अलग है। जहां बाजार का घना प्रभाव है, वहां भी वे रास्ता बनाते चलते आए हैं। वह सिनेमा हो या जीवन। उनका दैनिक जीवन में सरल और सहज है। सिनेमाई दुनिया की तरह गुंफित नहीं है।

बहरहाल, श्याम बेनेगल हिन्दी प्रभाव क्षेत्र से काफी दूर हैदराबाद में पैदा हुए थे। इसके बावजूद उन्होंने हिन्दी में फिल्में बनाईं। हिन्दी पट्टी के मर्म को पर्दे पर उतारा है। हालांकि, जब वे पैदा हुए थे, तब वह निजाम का हैदराबाद था। आजादी मिली तो वह हिस्सा भारत में शामिल हुआ। वह भारी उथल-पुथल वाला राजनीतिक दौर था। बहुत पहले बीबीसी से बातचीत में उन्होंने अपने बचपन को याद किया था। उन दिनों की चर्चा करते हुए बेनेगल ने कहा था, मैंने कई ऐतिहासिक बदलाव देखे हैं। एक बात और कि हैदराबाद शहर में सामंतवादी राज या सोच थी, लेकिन जहां हम रहते थे, वो छावनी क्षेत्र था, जहां की सोच एकदम अलग थी। मैं मानता हूं कि मेरा बचपन बहुत अच्छा बीता। मैं हैदराबाद के पहले अंग्रेजी स्कूल महबूब कॉलेज हाईस्कूल में पढ़ा। ये स्कूल शायद अब 160 साल पुराना होगा।|” उनके पिता छाया-चित्रकार थे। जीविकोपार्जन के लिए पिता ने एक स्टूडियो भी खोल रखा था।

अच्छी पढ़ाई-लिखाई कर श्याम बेनेगल सीधे सिनेमा में नहीं आए। इसके लिए वे एक प्रक्रिया से गुजरे। अनुभव बटोरा। इसकी शुरुआत विज्ञापन एजेंसी से की। हिन्दुस्तान लीवर में कॉपी एडीटर का काम शुरू किया और जल्द ही उसके लिए एक विज्ञापन लिखा। उनके लिखे को लोगों ने काफी पसंद किया। उनकी बड़ी सराहना हुई। यहां तक कि उस विज्ञापन को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला। इससे उनका मन उत्साह से भर गया और मनोबल ऊंचा हुआ। काम के प्रति ललक तेज हो गई। वे कहते हैं कि छह महीने बाद ही वे विज्ञापन फिल्में बनाने लगे। और जल्द ही हजार से ज्यादा विज्ञापन फिल्में बना डाली। यह बड़ी सफलता थी। बेनेगल इस बात को खुद स्वीकारते हैं कि सीखने के लिहाज से उनका यह अनुभव लाजबाव रहा। यही वजह थी कि फिल्म निर्माण उनके लिए कोई मुश्किल विधा नहीं रह गई थी। विज्ञापन फिल्मों को बनाते-बनाते उन्होंने दृश्य-श्रव्य विधा में एक किस्म की निपुणता हासिल कर ली थी। श्याम बेनेगल यह मानते रहे हैं कि सिनेमा बीसवीं सदी की प्रौद्योगिकी से उपजी कला है। कोई स्वयंभू चीज नहीं है। यह उपजी, क्योंकि इससे जुड़ी हुई औद्योगिक तकनीकों में विकास हुआ। ऐसे में सिनेमा को अधिक मानवीय अभिव्यक्ति की ओर ले जाना एक चुनौती है। वह हमेशा रहने वाली है। उद्भावना के सिने विशेषांक में तापस चक्रवर्ती से बातचीत के क्रम में उन्होंने यही कहा था। यह बात उनके मन में गहरे बैठी हुई थी तो जाहिर सी बात थी कि वे जरूर ऐसी फिल्म बनाएंगे जहां संवेदनाओं को तकनीक का कोई असर न पड़े। हुआ भी यही।

इसी सिनेमाई समझ के साथ श्याम बेनेगल ने अंकुर बनाई। यह फिल्म सितंबर 1974 में प्रदर्शित हुई थी। वे स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं कि जब उन्होंने अपनी पहली फीचर फिल्म बनाई थी तो उन्हें फिल्म निर्माण संबंधी तमाम बारीकियों की जानकारी थी। यही वजह रही कि सिनेमाई शिल्प की दृष्टि से अंकुर की काफी चर्चा हुई। इसके तकनीकी पक्ष को सराहा गया। नया सिनेमा को आगे बढ़ाने में इस फिल्म ने जाने-अनजाने जो योगदान किया है, वह तो है ही। स्वयं बेनेगल एक जगह इस बात की जानकारी देते हैं। वे कहते हैं, अंकुर बनने के बाद व्ही. शांताराम का फोन आया। उन्होंने पूछा कि ऐसी फिल्म कैसे बनाई? अब तक क्या कर रहे थे? जब राजकपूर से भेंट हुई तो उन्होंने मुझसे कहा कि तुमने पहले कभी फिल्म नहीं बनाई, फिर भी इतनी अच्छी फिल्म बना दी। ये कैसे किया?” इन बातों का सीधा मतलब तो यही हुआ कि अंकुर ने लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा। इस फिल्म के 40 साल पूरा होने पर शबाना आजमी ने कहा था कि मेरी पहली फिल्म 40 साल पहले 24 सितंबर, 1974 को प्रदर्शित हुई थी। अंकुर जैसी बेहतरीन फिल्म के जरिए मुझे लॉन्च करने के लिए मैं श्याम बेनेगल को धन्यवाद देती हूं।

हालांकि, अंकुर के लिए शबाना आजमी उनकी पहली पसंद नहीं थीं। श्याम बेनेगल इस फिल्म के लिए वहीदा रहमान को लेना चाहते थे। लेकिन वे वहीदा रहमान को तैयार करने में विफल हुए। वहीदा रहमान उस दौर की मशहूर अभिनेत्री थीं। प्यासा, गाइड और तीसरी कसम जैसी फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुकी थीं। इन सबके बावजूद अंकुर में काम न करने का उन्हें पछतावा रहा है। जब वे 76 की थीं तो खास बातचीत में एक समाचार समूह को बताया था कि अंकुर में काम न करने का आज भी पछतावा है। उन्होंने आगे कहा था, श्याम बेनेगल बहुत चाहते थे कि मैं अंकुर करुं, पर शायद शबाना जैसी अदाकारा को अंकुर के जरिए ही आना था। इस बात को स्वयं श्याम बेनेगल अपने शब्दों में कह चुके हैं। उन्होंने कहा है कि इस फिल्म में वहीदा रहमान को लेना चाहता था, लेकिन तब वो बड़ी स्टार थीं और उन्होंने इस भूमिका को करने से मना कर दिया था। एक जगह अंजू महेंद्रू ने भी यही दावा किया है। उनका कहना है कि उन्हें इस लीड किरदार को निभाने का मौका मिला था, लेकिन उन्होंने फिल्म करने से इनकार कर दिया। आगे वे यह भी कहती हैं कि शबाना के लिए वह अहम फिल्म बनी और वाकई शबाना ने बेहतरीन तरीके से फिल्म में काम किया।

आखिर ऐसी क्या बात थी- अंकुर में। फिल्म समीक्षकों ने माना कि अंकुर ने हिन्दी फिल्म में उस परंपरा को मजबूती के साथ आगे बढ़ाया, जिसकी शुरुआत भुवन शोम से हुई थी। यह ध्यान ही होगा कि फिल्म भुवन शोम 1969 में पर्दे पर आई थी। यह मृणाल सेन की कृति थी। नया सिनेमा के बरक्स समीक्षकों ने गंभीर दृष्टि अपनाई और इन फिल्मों की उतनी ही गंभीर समीक्षा की। इससे स्पष्टता कम आई, पर ऐसी फिल्मों को लेकर रहस्य बढ़ गया। भारतीय नया सिनेमा के लेखक सुरेन्द्र नाथ तिवारी लिखते हैं- विषयवस्तु फिल्म की रीढ़ होती है। नया सिनेमा के फिल्मकार ने इसे गंभीरता से ग्रहण किया। अत: नया सिनेमा में विषयवस्तु महत्वपूर्ण तत्व के रूप में उभरकर आया है। इन फिल्मों की विषयवस्तु में सामाजिक और राजनीतिक चेतना का स्वर प्रधान है जो प्रबुद्ध मध्यवर्गीय प्रवृत्तियों के अनुकूल पड़ता है। इसलिए मध्यवर्ग नया सिनेमा का विशिष्ट दर्शक और संपोषक है। नया सिनेमा को समसामयिक जीवन और मानवीयता के लिए प्रतिबद्ध होने के कारण स्वभावत: व्यवस्था विरोधी है। विरोध का स्वर सांकेतिक होने पर भी गहरी छाप अंकित करता है। अंकुर इसका स्पष्ट उदाहरण है।

यह बहस भी चली कि नया सिनेमा में नया क्या है? यहां उसकी चर्चा बासी रोटी की तरह होगी। हां, एक दिलचस्प बात जरूर मालूम हुई है। बतौर पत्रकार फिल्मी दुनिया को नजदीक से देख-परख चुके जुगनू शारदेय कहते हैं, जब अंग्रेजी में इन फिल्मों को पैरलल सिनेमा कहा जा रहा था तो शायद माधुरी पत्रिका के संपादक रहे अरविंद कुमार ने इसे समानान्तर सिनेमा का नाम दिया था। फिर यह नाम आगे भी चला। वे यह भी दावा करते हैं, स्वयं मैंने धर्मयुग पत्रिका में अपने लिखने-पढ़ने के दौरान सार्थक सिनेमा कहना शुरू किया था। फिर लोगों को यह ठीक लगा तो वे भी इस शब्द का उपयोग करने लगे। कुल मिलाकर कहें तो नया सिनेमा सार्थक भी कहलाया और समानान्तर भी। लेकिन विरोधभास इसके साथ है। वह यह है कि स्वयं श्याम बेनेगल इन नामों से अपना इत्तेफाक नहीं रखते हैं। वे इस बात को दोहराते रहे हैं कि किसी ने अपनी सहूलियत के लिए समानांतर सिनेमा के शब्द की रचना की है। मतलब यह कि इसे इस रूप में दिखाया जाता है कि यह मुख्य सिनेमा से हटकर है। या फिर यह बताने की कोशिश होती है कि इस तरह की फिल्मों से मनोरंजन नहीं होता। निजी तौर पर मैं इस तरह के शब्दों से कभी सहमत नहीं रहा।

खैर, यह बहस हिन्दी सिनेमा में बगैर किसी निष्कर्ष के खत्म हो चुकी है। जरूरी बात यह है कि फिल्म अंकुर का बीज श्याम बेनेगल के मन-मस्तिष्क में कैसे आया? यह दावा किया जाता रहा है कि फिल्म सच्ची घटना पर आधारित है। इस रहस्य को स्वयं बेनेगल ने खोला है। वे कहते हैं- हम लोग शहर के बाहरी हिस्से में रहते थे। इतवार या छुट्टी के दिनों में अपने मकान मालिक के लड़कों के साथ उनके फॉर्म हाउस में जाया करते थे। वहां मैंने जो कुछ महसूस किया। उन घटनाओं को मैंने कहानी के रूप में लिखा और ये कहानी हमारे कॉलेज की पत्रिका में भी छपी। तभी मैंने सोचा कि इसको लेकर ही पहली फिल्म बनाऊंगा। इस बात से तो यही अंदाजा लगता है कि फिल्म अंकुर की कथाभूमि सही घटना के आधार पर तैयार की गई है। जब यह फिल्म आई, तब देश में विरोध का वातावरण था। जगह-जगह आंदोलन हो रहे थे। व्यवस्था के खिलाफ लोग खड़े दिखाई दे रहे थे। उसी वर्ष फिल्म इम्तिहान आई। इस फिल्म में शिक्षक और छात्रों के बीच संबंध पर्दे पर दिखाए गए थे। इस फिल्म ने विनोद खन्ना के फिल्मी कैरियर को नई ऊंचाई दी, लेकिन समय के साथ फिल्म का महत्व कम होता गया। इसे वह महत्व नहीं मिला, जो अंकुर को मिला। इस फिल्म के जरिए श्याम बेनेगल ने हिन्दी सिनेमा को कुछ नए ढंग से समृद्ध किया, जिसका आगे भी अनुकरण करने की कुछ लोगों ने बखूबी कोशिश की। लेकिन बात नहीं बनी। वैसे भी कालजयी कृति दोहराई नहीं जा सकती है। रही बात अच्छे रचनाकार की, तो वे हमेशा नया गढ़ते हैं। स्वयं को दोहराते नहीं हैं। श्याम बेनेगल कहते हैं- अगर मैं फिर से अंकुर बनाऊं, तो उसका कोई मतलब नहीं होगा। वह उबाऊ होगी।

बेनेगल ने अपनी यही पहचान बनाई है। उन्होंने हमेशा कदम आगे बढ़ाया। सामंती दमन और अत्याचार को अपनी फिल्मों का केंद्रीय भाव रखा। फिल्मों के माध्यम से वे लगातार यह चेतावनी दे रहे थे कि भीतर ही भीतर एक विद्रोह पनप रहा है। अंकुर के बाद निशांत, मंथन और भूमिका जैसी फिल्में उन्होंने बनाईं। फिल्म निशांत में जमींदारी आतंक के खिलाफ बगावत है। जबकि मंथन में सहकारिता आंदोलन जैसे विषय को कथाचित्र में बदल दिया गया है। भूमिका श्याम बेनेगल की चौथी फिल्म है। फिल्म समीक्षकों ने यह दावा किया कि यह फिल्म विख्यात मराठी लोक रंगमंच व सिने अभिनेत्री हंसा वाडकर के जीवन पर आधारित थी। इस फिल्म के जरिए नारी की स्वतंत्रता और उसके जीने के अधिकार से जुड़े विषय को बिल्कुल बारीकी से दिखाया गया है। इन फिल्मों ने श्याम बेनेगल को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति दी। लेकिन वे यहीं नहीं ठहर गए, बल्कि सूरज का सातवां घोड़ा भी बनाया और भारत एक खोज को भी पर्दे पर उतारा। स्मरण रहे कि सूरज का सातवां घोड़ा हिन्दी की चर्चित रचनाओं में है। इसके लेखक धर्मंवीर भारती स्वयं लंबे समय तक मुंबई में रहे। वहां वे पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े रहे, लेकिन फिल्मी दुनिया से उनका सीधा सरोकार कभी नहीं रहा। यहां तक कि सूरज का सातवां घोड़ा फिल्म की पटकथा शमा जैदी ने लिखी।

इस फिल्म की सराहना हुई और एक वर्ग ने इसे पसंद भी किया। विनोद भारद्वाज ने इस फिल्म के बाबत 1993 में लिखा था- कई बार लेखक पर्दे पर अपने चरित्रों को देखकर संतुष्ट नहीं होते हैं। इस बात का उन्हें पूरा अधिकार है। धर्मवीर भारती यदि सूरज का सातवां घोड़ा के फिल्म रूप से संतुष्ट हैं तो यह इस बात का प्रमाण है कि लेखक-फिल्मकार एक-दूसरे के पूरक भी हो सकते हैं। वहीं भारत एक खोजपंडित जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया का हिन्दी अनुवाद है। इस संबंध में विनोद लेखते हैं कि श्याम बेनेगल ने जब डिस्कवरी ऑफ इंडिया पर धारावाहिक बनाया तो वह समान्य दर्शकों द्वारा भी सराहा गया। प्रबुद्ध दर्शकों को भी यह पसंद आया। यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि श्याम बेनेगल इतिहास संपन्न दृष्टि रखने वाले फिल्मकार रहे हैं। वे बार बार अतीत में जाना चाहते हैं। फिर उस अतीत की रोशनी से वर्तमान और भविष्य को जानना परखना चाहते हैं। फिल्म समीक्षकों का मत है कि वे यह मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने अतीत से ही बना है। इसलिए एक रचनाकार के लिए अतीत का मोह वर्तमान को उजागर करने का महत्वपूर्ण औजार होता है।

वैसे भारत जैसे देशों में फिल्मकार का इतिहास में जाना जोखिम भरा काम होता है। इसके लिए जानकारी पक्की और कई स्तरों पर जांची व परखी होनी चाहिए। श्याम बेनेगल इसलिए अपनी फिल्मों में सफल हुए हैं, क्योंकि वे तैयारी के साथ इतिहास को पर्दे पर उतारते रहे हैं। रस्किन बांड के उपन्यास पर आधारित फिल्म- जुनून इसका उदाहरण है। इसके लिए उन्होंने गदर के जमाने की अनगिनत जानकारियां इकट्ठी की थीं। उस जमाने की ढेरों किताबें पढ़ीं। दावा तो यहां तक किया गया है कि फिल्म बनाने से पहले मंगल पांडेय के कागजात तक पढ़ डाले गए थे। अब अगर ऐसी जानकारियों के बाद कोई फिल्म पर्दे पर आएगी तो निश्चय ही उसकी प्रस्तुति समृद्ध और श्रेष्ठ होगी। इसमें दोराय नहीं है कि श्याम बेनेगल ने ऐसे उदाहरण रखे हैं। एक बातचीत के क्रम में उन्होंने स्वयं कहा है- मैं आपको बताता हूं कि जुनून या भूमिका बनाते हुए क्यों मुझे बहुत आनंद आया। यह अनुभव स्वयं को अपने इतिहास के एक समय विशेष में रखकर उस इतिहास को ठोस या वास्तविक रूप देने जैसा था- इतना अधिक वास्तविक कि वह आपको अपने वातावरण का हिस्सा लगने लगे। इतिहास की वे सभी चीजें आपके सामने आ जाएं जो बहुत महत्वपूर्ण तो हैं, पर जो हमें इतिहास की पुस्तकों में कभी दिखती नहीं हैं। व्यक्तियों के जीवन के वे हिस्से उभरें, जो अधिकांश इतिहास पुस्तकों में बहुत कम चर्चा पाते हैं। और जब ये चीजें आपके सामने आती हैं तो वे आपके लिए यथार्थ का एक विस्तार बन जाती हैं। जुनून, भूमिका और त्रिकाल में मैंने सिर्फ एक कालखंड को ही नहीं प्रस्तुत किया है, बल्कि उस अतीत का वर्तमान से रिश्ता बनाना चाहा है।

उन्होंने भारत का संविधान बनने की कहानी पर भी एक टेलीविजन धारावाहिक का निर्माण किया है। बेनेगल स्वयं छह साल तक राज्यसभा सांसद और संसद की गतिविधियों के साक्षी रहे हैं। यह दिलचस्प बात है कि संविधान दो साल 11 महीने और 17 दिनों में बनकर तैयार हुआ था। लगभग इतने ही दिनों में श्याम बेनेगल ने अपनी शूटिंग भी पूरी की थी। उन्होंने फिल्म निर्माण के दौरान डॉक्यूमेंटरी और फिल्म के फर्क को स्पष्ट रखा है। इस संबंध में उन्होंने अपने विचार भी स्पष्ट किए हैं। उसका जमा अर्थ यह है कि फिल्म और डॉक्यूमेंटरी में मोटा फर्क यह होता है कि डॉक्यूमेंटरी तथ्यों पर आधारित होती है। उससे कहीं अलग नहीं जाती है। जबकि आम फिल्में कई बार हकीकत से जुड़ी होती हैं, लेकिन कल्पनाओं का सहारा लिया जाता है। वह फिल्म निर्माण हो या डॉक्यूमेंटरी, दोनों का निर्माण करते समय बेनेगल ने उसके व्याकरण का पूरा ध्यान रखा है।

इन अर्थों में देखें तो श्याम बेनेगल की तरह का दूसरा कोई फिल्मकार एकबारगी ध्यान में नहीं आता है। शायद इसलिए वे सबसे अलग हैं। अलग ढंग के फिल्मकार हैं। भारत में सिनेमा को जानने-समझने वाला शायद ही कोई होगा, जो दादा साहब फाल्के से प्रभावित न रहा हो। श्याम बेनेगल उनमें अपवाद हैं। वे मानते हैं कि भले ही फिल्म का जादू भारत में पर्दे पर लाने में फाल्के का योगदान था, लेकिन बाबू राव पेंटर ने भारतीय सिनेमा को यथार्थवादी और प्रकृतिवादी मोड़ दिया। सैरंध्री सरीखी मूक फिल्मों में पेंटर ने फिल्म को एक नई भाषा दी। यह दावा किया जाता है कि 1925 में पेंटर की फिल्म साहूकारी पाश ने समकालीन यथार्थ को चित्रित करने का एक नया सिनेमाई रास्ता खोल दिया था। यह वही बाबू राव पेंटर हैं, जिनसे व्ही. शांताराम सरीखे फिल्मकारों ने भी फिल्मकला का प्रशिक्षण प्राप्त किया था।

बेनेगल को देखकर यह इच्छा प्रबल होती है कि उनके मन में फिल्म बनाने का भाव पहले-पहल कब जगा? इस अटपटे सवाल का वे उतना ही मासूम जवाब देते हैं। उन्होंने पूछने वाले को बताया- यह पुरानी बात है। मैं तब छह-सात साल का था। हम सिकंदराबाद सैन्य छावनी में रहते थे। वहां एक गैरीसन सिनेमा था। मैंने जब पहली बार फिल्म देखी तो इस कदर सम्मोहित हो गया कि लगा कि दूसरी दुनिया में ही आ गया हूं और इस माध्यम से जो जुड़ाव हुआ। वह आज भी कायम है।

इस बात को काफी कम लोग जानते हैं कि श्याम बेनेगल और गुरुदत्त का पारिवारिक संबंध रहा है। लेकिन वे गुरुदत्त से प्रभावित नहीं थे। उनकी फिल्म ‘बाजी’ को श्याम जरूर पसंद करते हैं। हां, राजकपूर की पुरानी फिल्में उन्हें बहुत पसंद है- श्री 420, आवारा जैसी फिल्म के वे मुरीद हैं। उनका मानना है कि राजकपूर समाज से जुड़े फिल्मकार थे। महबूब खान की बनाई फिल्म ‘मदर इंडिया’ को वे अब तक की सबसे अच्छी फिल्मों में एक मानते हैं। स्मिता पाटिल के विषय में वे कहते हैं कि वो ऐसी अदाकारा थी कि कैमरा भी उन्हें पसंद करता था। जुबैदा (2000), वेल डन अब्बा (2009) जैसी फिल्में भी बनाईं। इस तरह देखें तो उन्होंने व्यावसायिक और समानान्तर दोनों ही तरह के सिनेमा में अपनी छाप छोड़ी है। सच कहा जाए तो वे भारतीय सिनेमा के आधार स्तंभ हैं।

श्याम बेनेगल को जानने-मानने वाले बताते हैं कि उनमें अच्छी बात यह है कि वे मन में कभी कोई बात नहीं रखते हैं। अपने विचार साफ-साफ जाहिर कर देते हैं। यही कारण है कि जब संसद सदस्य के तौर पर उनके अनुभव के बारे में पूछा गया तो उन्हेंने कहा था कि संसद में सांसदों के व्यवहार का स्तर गिर गया है। जो स्तर उन्हें बनाए रखना था, वे रख नहीं पा रहे हैं। उन्हें सुधार तो करना ही होगा। विचारधारा के स्तर पर श्याम बेनेगल की भारतीय जनता पार्टी से एक दूरी दिखाई देती है। लेकिन, वे लोकतंत्र के प्रति उनके मन में पूरा आदर भाव है। 2015 में पुरस्कार वापसी का अभियान चलाकर भारी जनमत से बनी मोदी सरकार को कुछ लोगों ने अस्थिर करने का प्रयास किया तो वे उस षड्यंत्र का हिस्सा नहीं बने। तब एक खबरिया चैनल को दिए इंटरव्यू में उन्होंने साफ-साफ कहा था कि पुरस्कार देश देता है, सरकार नहीं। मेरी नजर में पुरस्कार लौटाने का कोई मतलब नहीं है। इससे बेहतर तो यह है कि ये कलाकार और लेखक सरकार को पत्र लिखें और देश को आहत और स्तब्ध कर देने वाली घटनाओं के बारे में अपने सरोकारों को साझा करें।

जब सेंसर बोर्ड को लेकर विवाद चला तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि फिल्म के सीन को काटना सही नहीं है। इससे फिल्म की रचनात्मकता खत्म हो जाती है। यह विवाद जब बढ़ा तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने सेंसर बोर्ड के कामकाज की पड़ताल के लिए श्याम बेनेगल की निगरानी में समिति का गठन किया था।