भारत बहुधार्मिक बहुसामुदायिक और बहुजातीय संरचनाओं वाला देश है। इसमें यदि 56 करोड़ देवी- देवताओं के होने का उल्लेख किया जाता है, तो इसका एक सीधा अर्थ है कि देवी-देवताओं की बहुसंख्या समाज के बहुस्तरीय विभेदीकरण का परिणाम है। जितने घर उतने देवता, जितनी जातियां उतने देवता, जितने गांव उतने देवता और जितने नगर, उतने देवता। जाहिर है कि इस विभेदीकरण से देवी-देवताओं की संख्या में बेइंतहा बढ़ोतरी होती चली गई है।
देवी-देवताओं की यह बहुसंख्या शास्त्र धर्म के खिलाफ लोकधर्म के टकराव का भी नतीजा है। लोकधर्म मानने वाली जातियों ने शास्त्र धर्म के कठोर निषेधों और वर्जनाओं की प्रतिक्रिया में अपने देवता को चुनकर उन्हें अपने आत्मिक विश्वास का संबल बना लिया। ये जातियां शास्त्र वंचित थीं, मंदिरों में प्रवेश निषिद्ध था, इसलिए इन जातियों ने अपने-अपने देवता गढ़कर अपने-अपने घरों में प्रतिष्ठित कर लिए। इनके ये देवता इनकी ही जाति के कोई पूर्वज हुआ करते हैं। उन पूर्वजों को अति प्राकृतिक शक्तियों से विभूषित कर उन्हें देवी या देवता का रूप दे दिया गया है। ये देवता शास्त्र धर्म के उत्पीड़़न के विरुद्ध इन्हें भावनात्मक संबल देते रहे हैं। इनसे जुड़ी आस्था ने ही शास्त्र धर्म के कठोर निर्देशों के असहनीय हो जाने पर सामूहिक विरोध की भूमिका तैयार की।
देवी-देवताओं की बहुसंख्या भारतीय समाज की गरीबी का भी परिणाम है। गरीब लोग चाहे जिस जाति के हों, वे जब इस देश की महंगी चिकित्सा की सुविधा ले पाने में असमर्थ होते हैं, तो वे अपने ग्राम देवता गृह देवता को ही गा-बजाकर, पान-फूल चढ़ाकर रोगमुक्त होने की प्रार्थना करते हैं। इनका पक्का विश्वास है कि रोग देवताओं के क्रोध का नतीजा है और उससे मुक्ति देवी-देवता की प्रसन्नता का नतीजा है। अंधविश्वास और अशिक्षा ने भी इन्हें अपने देवी-देवताओं से अटूट बंधन में बांधे रखा है।
इनके देवी-देवता इनके नैतिक, मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों के निर्धारक हैं। ये सामाजिक नैतिकता में इनकी आस्था दृढ़ करते हैं। हर देवी-देवता के साथ कुछ टैबूज और टोटम जुड़े होते हैं। इनकी कुछ निषिद्धियां यदि देवता से जुड़े टैबूज के कारण हैं, तो कुछ आस्थाएं उनसे जुड़े़ टोटम के कारण। ये टैबूज और टोटम इन्हें मूल्यों से भटकने नहीं देते। पर्व-त्यौहार, विवाह आदी में गृह देवता, जाती देवता एवं ग्राम देवता की पूजा अनिवार्य मानी जाती है। एक जाति के देवता दूसरी जाति के देवता के रूप में भी मिलते हैं। जैसे- सोखा बाबा आरा (भोजपुर) आदि में ब्राह्मणों के देवता के रूप में मान्य हैं, किंतु ये कुछ क्षेत्रों में राजपूतों तथा वैशाली में बरई, यादव, माली, धोबी, कायस्थ आदि द्वारा भी पूजे जाते हैं। बिहार के विभिन्न भाषाई क्षेत्रों यथा- मैथिली, बज्जिका के जाति देवता आदि का वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है-
ग्रामीण देवता
कारिख- ये यादवों के लोक देवता हैं। इनके पिता ज्योतिष पंजियार थे। ज्योतिष पंजियार दुसाधों के जातीय लोकदेवता थे। ये सूर्य के कोप से कोढ़ी बने। कामरूप में इनका उद्धार पुत्र कारिख ने किया। कारिख के पुत्र कालदास हुए। ये सूर्योपासक थे। इनकी पूजा मगध के क्षेत्र में होती है। धान का लड्डू इन पर चढ़ाया जाता है।
कारिख के पूजक कारिखहा कहलाते हैं। हलवाइयों में इनकी पूजा कुल देवता के रूप में होती है। कारिख मिथिला और बज्जिकांचल में लोकपूजित हैं। इन तीनों की चरितगाथा में शौर्य चमत्कार की प्रधानता है, क्योंकि यह देवकुल (ज्योति-कारिख-कालदास) मर्यादित समाज व्यवस्था के पक्षधर थे।
बन्नी गोरैया- गोरैया मूलत: निषाद कुल के देवता हैं, जिनके साथ बन्नी प्रतिष्ठित हैं। ये राजपूत, माली आदि के भी कुल देवता हैं। गोरैया बन्नी का द्वाररक्षक एवं देवी प्रकोप से गांव की रक्षा करने वाला सीमांत प्रहरी होता है। गौरैया कोठी (सिवान), गिद्धौर आदि गौरैया वीर के सिंहस्थल हैं। गोरैया पूजा का प्रधान 17वीं शताब्दी में भी था। इसकी जानकारी संत कवि धरणीदास की रचनाओं से प्राप्त होती है। उन्होंने गोरैया पूजा में मदिरा का उपयोग पर नाराजगी भी दिखाई।
सोखा- सोखा एक महत्वपूर्ण लोकदेवता हैं, जिन्हें उच्च कोटि का आदर प्राप्त है। हिंदी के एक संत कवि धरणीदास की रचनाओं से ज्ञात होता है कि सोखा और गौरैया के पूजा 17वीं शताब्दी में प्रचलित थी। मूलत: सोखा कुल देवता हैं, परंतु भिन्न-भिन्न जनपदों की विभिन्न जातियों द्वारा पूजित होने के कारण इन्हें सर्वजातीय लोकदेवता का स्थान प्राप्त है।
सोखा के उद्भव के विषय में एक दंतकथा है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा, जो शिव और पार्वती के विवाह में पुरोहित का कार्य कर रहे थे, की कृपा से सोखा का जन्म याज्ञिक अग्निकुण्ड से हुआ।
एक अन्य जनपदीय लोक गीतांश “बरहमा, विसुन होमियो कचलन, अग्निकुण्ड लेल अवतारा”, के अनुसार सोखा का अवतरण ब्रह्मा, विष्णु और महेश द्वारा किए गए होम के अग्निकुण्ड से हुआ। कर्नल टोड ने इस संदर्भ में अपनी रचना ‘राजस्थान’ में आबू पर्वत के उसे यज्ञ का उल्लेख किया है जिसके अग्निकुण्ड से चौहान, परमार, सोलंकी और प्रतिहार राजपूतों का उद्भव हुआ था, जिन्हें अग्निवंशी होने का गौरव प्राप्त है।
लोककल्याण की भावना सोखा के व्यक्तित्व की विशेषता है। जनपदीय गीतों के अनुसार सोखा अंधों, कोढियों, बांझों आदि की कारुणिक गुहार सुनते हैं और उनका उद्धार करते हैं। इनकी पूजा राजस्थान से लेकर बिहार के मिथिला, वैशाली, भोजपुर, बज्जिका आदि जनपदों में होती है। ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, भूमिहार ब्राह्मण आदि जाति के लोग भी इनकी पूजा करते हैं। इन जातियों को सोखायत के नाम से जाना जाता है। कहीं-कहीं मध्य एवं अति पिछड़ी जातियों द्वारा भी सेाखा की पूजा की जाती है। ऐसे परिवार जिनका प्रधान देवता सोखा तथा गोरैया हैं और हनुमान द्वितीयक देवता हैं, उन परिवारों में बन्नी को सोखा के समीप स्थान दिया जाता है। महावीहरी ध्वज को आंगन में एक ऊंचे स्थान पर गाड़ा़ जाता है।
सोखा की वार्षिक पूजा सामान्यत: श्रावण मास में होती है। उन्हें प्रसाद के रूप में घी लगी रोटी, गुड़़ से तैयार चावल की खीर, जिसमें लौंग, इलायची, अखरोट और फूल डाले जाते हैं, चढ़ाया जाता है। साथ ही लाल पाड़़ की धोती, जनेऊ, खड़ा़ऊ आदि भी उन्हें श्रद्धापूर्वक चढ़ाया जाता है। एक श्वेत (बकरी) बच्चे की बलि भी दी जाती है एवं उसकी हड्डियों को चढ़ावे के उपरांत देवघर के समीप दफन कर दिया जाता है।
लंबी बीमारी से मुक्त लोग सोखा की पूजा करने का संकल्प लेते हैं। पूजा करने के लिए वे किसी भगत की सेवा प्राप्त करते हैं। भगत नया कपड़ा पहनता है और हाथ में एक छड़ी लेकर सोखा का स्मरण करता है। भगत मिट्टी की थाली, जिसके बीच में अनेक बत्तियां जलती रहती हैं, को अपने हाथों में लेता है। वह अपने मुंह में पिछला हुआ गाय का घी भर लेता है और बत्तियों पर छिड़़कता है, जिससे बत्तियों से लौ निकलती है। वैसे लोग, जो लंबी बीमारी से त्रस्त अथवा भूतों, डायनों तथा बांझपन द्वारा परेशान होते रहते हैं, वे ऐसी लौ द्वारा अपने शरीर को सेंकते हैं। दूसरे दिन सुबह-सुबह भगत सूर्य देवता को गाय के दूध का अर्घ्य़ देता है।
भुइयां बाबा- वैशाली और मिथिला में भुइयां बाबा लोक देवता के रूप में विशेष रूप से पूजित हैं। ये यादव जाति के अतिरिक्त गाय-भैंस पालने वाली अन्य जातियों के भी बीच श्रद्धा एवं आस्था के केंद्र में हैं। भुइयां देवताओं में बसावन, बखतौर, कारू, विशो, रघुनाथ आदि के अतिरिक्त धोबियों के लोक देवता के रूप में गरीबन भुइयां की गणना की है। इनकी गाथाओं में अमीरों के कृषी से सम्बद्ध पशुपालन संस्कृति के अंतर्गत प्रकृति प्रेम, पशुचारण, यायावरी, कालर्दिशता, उदात्त प्रेम, संघर्षशीलता का विवरण मिलता है। अत: इनका सांस्कृतिक मूल्यांकन अपेक्षित है।
विषहर बाबा- बेगूसराय जिले के बछवाड़ा़ थानान्तर्गत राजापुर गांव में प्राचीनकाल से विषहर देवता का मंदिर है, जहां उनकी पूजा सामान्य रूप से सालों भर होती है। किंतु श्रावण कृष्ण पंचमी, जिसे उस क्षेत्र में ‘नाग पंचमी’ के नाम से जाना जाता है, जबकि पुराणों में ‘मौना पंचमी’ कहा गया है, को विशेष रूप से मेले का आयोजन होता है। सुदूरवर्ती गांव से लोग वहां आते हैं। विषहर की विशेष पूजा के बाद विषहर देवता वहां के पुजारी (भगत) के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। उसे ‘भगत खेलाना’ कहते हैं। उस समय बहुत सारे प्रार्थीजन सामने खड़े होकर अपनी कामना की पूर्ति के लिए उनसे प्रार्थना करते हैं और वे भगत (विषहर) उनकी पूर्ति का आश्वासन देते हैं।
यहां यह भी ध्यातव्य है कि लोगों की कामना सफल होती है, तभी तो भक्तों की भारी संख्या में मेले में उपस्थिती होती है। विषहर की ख्याति सहज समझी जा सकती है। उस दिन घर के अंदर या बाहर बड़ी़ संख्या में नाग, जिसे 'हरहरा' सांप कहते हैं, घुमते हुए देखे जाते हैं। चूंकि ये सांप संभवत: विषैले नहीं होते हैं, अत: लोग इनको घूमते देखकर बगल हो जाते हैं। सांप अपनी गति से आगे बढ़ जाते हैं। लोग उन्हें नमन करते हैं। ये सांप किसी को प्राय: डसते नहीं हैं। अत: लोग भी उन्हें मारने का प्रयास नहीं करते हैं।
बरहम बाबा- लोकदेवता बरहम मूलत: ब्रह्म हैं। वैदिक ब्रह्म ही लोक के आंगन में पहुंचकर बरहम बन गया है। जनपदीय गीतों में ब्रह्म का बहरम रूप में रूपांतरण लोक और वेद का समाहार है। अत: बरहम की उपासना ब्रह्म की लोकोपासना है, जिसने कुल देवता के रूप में कूलों को तथा ग्राम देवता व ग्राम संरक्षक के रूप में ग्रामीणों के जीवन की धारा को अनुशासित किया है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्म किसी मृत ब्राह्मण की आत्मा हैं। बरहम के गहवर या थान (स्थान) गांव से प्राय: बाहर पीपल या बट वृक्ष के नीचे बने होते हैं, जहां गांव की सभी जातियों के लोग वार्षिक पूजा एवं मांगलिक अवसरों पर विशेष पूजा- अर्चना करते हैं। उत्तर बिहार के गांवों में सदियों से कुल देवता एवं ग्राम देवता के रूप में पूजित बरहम तथा बरहम थान (स्थान) ग्राम्य संस्कृति की धुरी, सामाजिक सद्भाव तथा प्रेमानुराग का पवित्र स्थल बना हुआ है। बरहम के चढ़ावे में मिष्ठान, खीर, फूल आदि होते हैं। श्रावण की पूर्णिमा के दिन बरहम को सात अनाज का भूजा या सतभूजा चढ़ाया जाता है। बरहम की पूजा करने वाले इस दिन मिट्टी का घोड़ा या हाथी भी चढ़ाते हैं। एक सफेद बकरी का बच्चा, जिसके कान को हल्का काट दिया जाता है, बरहम पर चढ़ाकर छोड़ दिया जाता है। वृक्ष के धड़ को सिंदूर से रंगा जाता है और मिट्टी का एक पिण्ड बनाया जाता है, जिस पर चढ़ावा चढ़ाया जाता है। बेगूसराय क्षेत्र में बरहम को घोड़ादान की धार्मिक क्रिया प्रचलित है, जिसे घोर क्लेश कहते हैं। मृत व्यक्ति के लिए घोड़ादान करना भारतवर्ष में नया नहीं है। चोद्रास जाति में प्रचलित स्मारक शिलाएं लगाने की प्रथा है, जिसके अनुसार स्मारक शिलालेख के पास मृत महिला के लिए मिट्टी की छोटी गाय और मृत पुरूष के लिए मिट्टी का घोड़ा रखे जाने का उल्लेख मिलता है।
सलहेस- डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार दुसाध जाति का सलहेस केवला के राजा भीमसेन का पहरेदार था। इनके कार्यकाल में भीमसेन की रानी हंसावती के नौलखा हार की चोरी हो गई और सलहेस दण्डित हुए। लेकिन प्रेयसी दौना मालिन के सत्प्रयास से सलहेस ने मोकामा के महाचोर चूहर को भीषण संघर्ष के बाद हार सहित भीमसेन के समक्ष प्रस्तुत किया। सलहेस दण्डमुक्त हुए। इनके जीवनवृत पर उपन्यास, नाटक, काव्य, आदि भी लिखे गए हैं। अंग प्रदेश, वैशाली, मोकामा आदि क्षेत्रों में दुसाध जाति के साथ-साथ दोनवार में भी लोकदेव के रूप में सलहेस पूजित हैं।
ग्रामीण देवी
नदी देवी कमला- कमला मिथिलांचल की गंगा है और इस क्षेत्र में यह मातृका के रूप में लोकपूजित हैं। कमला अमृत कलशधारिणी विष्णुप्रिया लक्ष्मी स्वरूपा है। इसे नदी तटवर्ती जातियों की आस्था, श्रद्धा, पूजा, प्रसाद, गीत-नाद और नृत्य- नाट्य की भंगिमाएँ सदियाों से प्राप्त हैं। लोक की यही आस्था कमला के देवीत्व को दीप्त करती है।
नाग देवी विशहरा: नाग जल की चेतनाशक्ति है और नाग पूजा आर्येत्तर संस्कृति की देन है। नाग पूजा मूलत: भय भावना पर आधारित है। नाग पूजा के सम्बद्ध नाग पंचमी (श्रावण शुक्ल पंचमी) उस सांस्कृतिक पर्व का दिन है, जिस दिन मनुष्य और नाग जैसे भिन्न प्रकृति के जीवों ने एक दूसरे की महत्ता स्वीकार की। विशहरा की कोई प्राचीन मूर्ति नहीं मिलती। लेकिन बज्जी-विदेह तथा अंग जनपदों में इसके पारंपरिक लोकचित्र अवश्य मिल जाते हैं। ग्रामांचलों में विशहरा से सम्बद्ध लोकनाट्य सती बिहुला अंग जनपद में काफी लोकप्रिय है।
ज्वाला देवी जालपा: लोकदेवी जालपा मूलत: प्रकृति मातृका है। ज्वाला मुख में दीवत्व की अवधारणा के कारण ही ज्वालापाद अर्थात् जालपा की पूजा होने लगी। पर्वतांचल की इस प्रकृति मातृका की पूजा मिथिलांचल में प्रचलित है। ग्राम देवी जालपा का स्वरूप इस प्रकार वर्णित है-
नीला रंग घोड़वा जालपा, पाट के लगाम
ताहि चढ़ल जालपा तीनू माइ।
अर्थात नीलवर्ण घोड़ा पर सवार तीन मातृकाओं में जालपा प्रतिष्ठित हैं। यहां तीन मातृकाओं से तात्पर्य महाकाली, महालक्ष्मी, और महा सरस्वती से है। गुण और धर्म की दृष्टि से यह महाकाली का प्रतिनिधित्व करती है। जालपा कहीं ग्राम देवी, कहीं कुल देवी तो कहीं मातृका के रूप में पूजी जाती हैं।
नदी देवी कोसी- यह उग्र स्वरूपा नदी देवी है। कोसी का जल जिधर जाता है उधर बाग-बगीचे, खेत-पथार, गांव-घर आदि सभी उजड़ जाते हैं। इससे मुक्ति के लिए इस क्षेत्र में नदी-देवी के रूप में पूजा- अर्चना की जाती है।
नदी देवी गंगा- यह प्राकृतिक नदी है। देवनदी के रूप में यह लोक पूजित है। मगध और मिथिला की यह सीमांत नदी है। इस नदी के तट पर अनेक नगर बसे हुए हैं। ऋग्वेद में भी इस नदी की चर्चा है। अभी इसे राष्ट्रीय नदी घोषित किया गया है।
प्रकृति मातृका तुलसी- भारत में वृक्ष पूजा का प्राचीनतम अवशेष सिंधु घाटी की सभ्यता में और उसका विकास व विस्तार पुराण साहित्य में उपलब्ध है। आर्यों ने वृक्ष-वनस्पतियों में देवत्व की अवधारणा स्वीकार कर वृक्ष पूजा को पुराण सम्मत बना दिया। पूर्वांचल में बरगद, पीपल, पाकर, आंवला, कदम्ब, बेल, नीम, तुलसी आदि में देवत्व की परिकल्पना लोक संस्कृति की देन है। सम्पूर्ण बिहार में वट सावित्री व्रत में सुहागिनों द्वारा वट वृक्ष की पूजा वृक्षानुराग को प्रतिबिम्बित करता है। तुलसी मूलत: वानस्पतिक पौधा है, जिसमें ज्वारनाशक, विषमोचन एवं आरोग्य दायिनी शक्ति होने के कारण इसमें देवीत्व की अवधारणा स्वभाविक है। लोक संदर्भ में तुलसी के कई रुप प्राप्त हैं, यथा रामा, श्यामा, वन तुलसी, बुवई तुलसी आदि। जनपदीय श्रुति में तुलसी की जन्मभूमि कूड़़ खेत है, जहां से यह सश्रद्धा स्थानांतरित होकर लोकजीवन की गतिशीलता और ऊर्जा का प्रतीक बनी। ऐसा लोक विश्वास है कि तुलसी के निकट प्रतिदिन दीप जलाने वाली पुत्रवती होती है और नित भोग लगाने वाली सुहागवती बनी रहती है।
लोक मातृका छठी मइया- बिहार की सांस्कृतिक नदी गंगा के आर-पार के जनपदीय गांवों में छठी मइया की पूजा लोक मातृका के रूप में प्रचलित है। इसकी पूजा का आरम्भ सौर संस्कृति तथा जल (नदी) संस्कृति के संगम पर हुआ। यह सौर संस्कृति की वाहिका तथा लोक संस्कृति की संरक्षिका है। लोक मान्यता के अनुसार लोक कल्याण के लिए सदा रमण एवं भ्रमणशील रहने वाली रौना माई अर्थात् छठी मइया अंधों को आंख, कोढि़यों को सुंदर एवं स्वस्थ काया (आरोग्य), बांझों को पुत्र का वरदान (पुत्रदान) देती हैं। अत: व्रती छठी मइया के अश्वारोही तेजस्वी पुत्र, गृह कार्यों को संभालने वलाी गृहलक्ष्मी बहू, घर-घर संदेश-उपहारादि पहुंचाने वाली सामाजिक संस्कृति की वाहिका पुत्री एवं सुयोग्य पंडित दामाद का वर सदा से मांगती आई है, जो सुखी और संतुलित गृहस्थी के लिए आवश्यक है-
''घोड़ा़ चढ़न लागी बेटा मांगिलौं
मांगिलौ घर सचिनि पुतोह माता।
वायना बहुरे लागि बेटी मांगिलौं
पंडित मांगिलौं दामाद, छठी मइया।
बिहार में सूर्योपासना से सम्बद्ध प्राचीन स्थलों में देवार्क (देव), अवलार्क (उल्लार, पटना), पूण्यार्क (पण्डारक), औंगार्क (औंगारी), मधुथवा (मधुसखां, अखल), कन्दाहा (सहरसा), कमलादित्य (मधुबनी) आदि विशेष रूप से ख्याति प्राप्त हैं।
वाक् देवी बन्नी- वाक् शक्ति मूलत: मातृरूपा है, जो कल्याणमयी, आनंदमयी तथा शांतिमयी होती है। बन्नी पारिवारिक संस्कृति (कुल देवी) की वह धुरी है, जो कुलों को सुख, सौभाग्य और समृद्धि प्रदान करती है। अत: वेदी पर प्रतिष्ठित बन्नी की पिण्डाकृति वस्तुत: ब्रह्माण्ड की सृजनशीलता का प्रतीक है, जिसमें सृजन शक्ति निरंतर प्रवाहित है। लोकसाहित्य में वाक्देवी बन्नी की लोकाकृति इस अद्भुत रूप में गढ़ी गई है-
सोने खरऊआँ चरहल अइलन बन्नी देवी
हाथ सोवर्न के साठ हे।
जेहि साठे माख भगत से सेवइका
अपना अहुतवा देले जाह हे।
समपति वराहले समपति वराहले, वराहले कुल परिवार हे।
वैदिक संस्कृति के संदर्भ में वाक्देवी का वाहन हंस है, लेकिन लोकसंस्कृति के आंगन में बन्नी का वाहन मोर है। वाक्देवी बन्नी में वैदिक और लोक दोनों तत्वों का समाहार हुआ है।
गुह्यदेवी गहिल- लोक देवी गहिल मूलत: गौ जैसे दुधारू पशु की पोषिका, संवर्द्धिका और आरोग्यदायिनी देवी होने के कारण पशुपालकों में अधिक प्रतिष्ठित हैं, जबकि पशुओं की पोषिका पूषा शास्त्र सम्मत देवी मानी गई है। यदुवंशी लोक देवताओं की कुलदेवी, लोक महाविद्दा की गहिल, चौदह देवानों में परिगणित गहिल, गाथाओं की पात्र आदि। बज्जिाकांचल में प्रचलित वसावन और बखतौर की गाथाओं में कुलदेवी गहिल के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वसंत पंचमी एवं विजयादशमी के दिन इनकी पूजा इस क्षेत्र में होती है।
लोकदेवी बामती- चौदह देवानों में बामती की गणना हेाती है। बामती वामवर्गी धामियों की आराध्य देवी हैं। बामती कुलीनों की बाला सुंदरी भी है।
देवी त्रिपुर- सृष्टि, स्थिति और लय जैसी त्रिशक्ति संभूत मातृब्रह्म के अनेक रूपों में त्रिपुर सुंदरी को लोक एवं शास्त्र दोनों की प्रतिष्ठा प्राप्त है। त्रिपुर के दस रूप प्रचलित हैं- कुमारी, त्रिपुरा, गौरी, रमा, भारती, काली, चंद्रिका, कात्यानी तथा ललिता। मिथिलांचल में यह राजकुमारी कालानुरूप चार रूपों में लोकपूजित हैं- बाला, युवती, योगिनी तथा वृद्धा। इस प्रकार मोरंगिया धामियों की प्रेम सुंदरी त्रिपुर की साधना अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष के लिए एवं शास्त्रोक्त त्रिपुर की उपासना आत्मशक्ति की उपासना है। इन्हें लोक और शास्त्र दोनों की मान्यता प्राप्त है।
रोगमातृका शीतला- लोकमातृका शीतला की पूजा बिहार के प्राय: सभी जनपदों में प्रचलित है। शीतला को रोग मातृका कहा गया है। मिथिलांचल में लोक देवी शीतला की पूजा के मूल में भय और त्रण की भावनाएं सन्निहित है। मिथिलांचल में शीतला को गर्दभ वाहिनी कहा गया है, जबकि भोजपुरी अंचल में अश्वारोही कहा गया है। मैथिली लोकगीतों में वह हेलनी डोमिन के पुत्र को पुनर्जीवित करती है। माताएं शीतला के कोप से अपनी संतति की रक्षा के लिए उनकी पूजा-अर्चना करती हैं। शीतला सप्तमी के दिन संतानवती नारियां धन-जन, सुख-सौभाग्य, संतति-आरोग्य आदि की कामना से व्रतानुष्ठान करती हैं तथा युग-युग तक बालकों की आरोग्य रक्षा के लिए प्रार्थना करती हैं-
“गाबथि भगत गन सुनु हे शीतला मैया,
बालक रक्षा करिहें जुगे-जुगे।”
बघेसरी- इनका मूल नाम बाघेश्वरी है। इनका वाहन बाघ या सिंह रहता है। ये दुर्गा की लोक रूप हैं। दीना-भदरी वर्ग की कुलदेवी बघेसरी ही हैं।
जलेसरी- इनका मूल नाम जलेश्वरी है। ये जल की देवी अर्थात् नदी देवी हैं। मल्लाह जाति के लोग इनकी श्रद्धा के साथ पूजा-अर्चना करते हैं।
धनेसरी- इनका मूल नाम धनेश्वरी है। ये धन की देवी हैं, अर्थात् इनका लोक रूप लक्ष्मी है।
लुकेसरी देवी- मधेपुरा जिला मुख्यालय से करीब दस किलोमीटर पूरब मुरहो के निकटवर्ती गांव बेलो में लुकेसरी देवी का पूजास्थल है। यहां श्रद्धालु प्रत्येक मंगलवार को हजारों की संख्या में जल चढ़ाने आते हैं। पूजास्थल एक ऊंचे टीले पर अवस्थित है और कई सौ वर्ष पुराने एक बरगद वृक्ष की जड़ में पिण्डी है। स्थल के सूक्ष्म अवलोकन के पश्चात दर्शक इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि यहां कई सौ वर्ष पुराना एक विशाल गढ़ रहा होगा, जिसका विस्तार कई एकड़ जमीन में है। जनमानस का अभिमत है कि वह लुकेसरी देवी का गढ़ है। जो 17वीं शताब्दी में पैदा हुई। निश्चय है यह स्थल पुरातात्विक महत्व का है और श्रद्धा केंद्र भी। इनकी गाथा पूर्णिया और सहरसा जिले में प्रचलित है। लुकेसरी देवी चमार जाति की कुलदेवी भी हैं, जिनकी वे पूजा करते हैं। इस सम्बंध में एक लोककथा भी प्रचलित है, जो इस प्रकार है-
लुकेसरी एक चमार की बाला थी। वह छेछनमल को पति के रूप में प्राप्त करना चाहती थी। उसने इसके लिए लंबी अवधि तक एकादशी व्रत किया। एक दिन उसे मालूम हुआ। जिसके लिए वह तपस्या कर रही है। वह योगी होकर इधर-उधर भटक रहा है। लुकेसरी उसे पाने के लिए दर-दर घूमती है। अंत में छेछन उसे प्राप्त होता है। छेछन ने उससे पूजनीय देवी के रूप में उपदेश ग्रहण किया। तभी से लुकेसरी एक लोकदेवी के रूप में पूजी जाने लगी। इनके सम्बंध में एक प्रचलित गीत है-
“जेही ते पुरूख लय सखी हो
सखी के कैलिये एकादशी परब
सखी कैलियै हे ना
दैबा से हो तो पुरुष
ओढ़नी बसुरिया बजबै हे।”
लुकेसरी का मूल नाम लोकेश्वरी है। बौद्ध साहित्य में बौद्ध देवी के रूप में लोकेश्वरी चर्चित हैं। सम्भव है कि लोकेश्वरी का ही लोक रूप लुकेसरी है।
भस्मी देवी- ‘भस्म’ शब्द का अर्थ ‘राख’ होता है। मुजफ्फर पुर से 20 किलोमीटर पश्चिम राष्ट्रीय उच्च पथ संख्या - 28 पर पानापुर नामक गांव में गण्डक नदी के तट पर लोक देवी भस्मी देवी का प्राचीन मंदिर अवस्थित है। देवी की मूर्ति एक ही पत्थर के टुकड़े को तराश कर बनाई गई है। जो अद्भुत एवं चमकदार है। पूर्व में यहां छोटे बच्चों की बलि दी जाती थी। उन्हें आग की लपटों के सुपुर्द कर दिया जाता था, जहां वे जलकर ‘राख’ में परिणत हो जाते थे। 1958 ई. में एक वैष्णव साधु ने इस बलि प्रथा का विरोध किया। फलत: इस अमाननीय प्रथा का अंत हुआ। वर्तमान में इस मंदिर में देवी को मिष्ठान चढ़ाया जाता है। नवरात्र के समय इस मंदिर में विशेष रूप से पूजा-अर्चना की जाती है और सुदूरवर्ती क्षेत्र से भारी संख्या में श्रद्धालु यहां आते हैं। यहां कबूतर उड़ाने की परंपरा बहुत पुरानी है। जो शांति एवं समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। मुस्लिम लोग भी यहां श्रद्धा के साथ आते हैं और प्रसाद चढ़ाते हैं।
बंजारी देवी- यह देवी वाणिज्य कर्म से जुड़े लोगों एवं गाड़ीवानों की देवी हैं। गाड़ीवान अपनी गाड़ी के ध्रुव में तेल डालने के पूर्व कुछ बूंदे 'जय बंजारी' कहते हुए देवी के नाम पर गिराते हैं। यह पावन कार्य शुभ एवं सुरक्षित माना जाता है। इस देवी के स्थान के निकट एवं दूर के गांवों के लोग पेड़ की सूखी टहनियां एवं धान के पौधे का डंठल चढ़ावे में चढ़ाते हैं।
ढेलही देवी- ‘ढेला’ शब्द का अर्थ होता है- ‘मिट्टी का लौंदा’। इस देवी को खुश करने के लिए उनके स्थान के निकट ढेला फेंका जाता है। इस देवी का स्थान एक पेड़ के नीचे अवस्थित होता है।
घोरही देवी- ये घोड़े की देवी हैं, जिन्हें मिट्टी का घोड़ा बनाकर अन्य उपहारों के साथ चढ़ाया जाता है। यह चढ़ावा मनौतियों के पूर्ण होन पर चढ़ाया जाता है।
हाथी मायी - हाथी मायी का स्थान पीपरा के जंगल के दोन घाटी में अवस्थित है। यह भू-भाग चम्पारण जिले के अंतर्गत आता है। इस देवी को मिट्टी का बना हुआ हाथी चढ़ाया जाता है। साथ ही युवा बैल की बलि भी चढ़ाई जाती है।
चिरकुटही देवी- ‘चिरकुट’ का अर्थ होता है- कपड़े का टुकड़ा। यहां से गुजरने वाले एवं आगंतुक कपड़े का टुकड़ा देवी को चढ़ाते हैं। यह देवी शीत ऋतु की प्रमुख देवी हैं।
सती दायी- पति के मरणोपरांत जो स्त्री स्वयं को अर्थी के साथ अग्नि में समर्पित कर देती हैं, उन्हें सती कहा जाता है। ये ‘देवी’ के रूप में पूजी जाती हैं। 170 वर्ष पूर्व एक महिला सति हुई थी। जिस स्थान पर उन्होंने प्राण त्यागे उसे सतीथान या सतीवारा या सतीवाद के नाम से जाना जाता था। अब यह परम्परा प्रचलन में न के बराबर है। एक ऐसा ही सती का स्थान सारण जिले के इधारा गांव में अवस्थित है। अरवल जिले के पुरान गांव में भी एक सतीयारा है, जो करीब 100 वर्ष पूर्व पाठक परिवार की एक महिला सती हो गई थी उसका है। बिहार प्रांत में अनेक स्थानों पर सतीथान हैं, जो लोक देवी के रूप में पूजी जाती हैं।
चुदरी देवी- चुदरी देवी एक ब्राह्मण विधवा की प्रेतात्मा थी, जो अपने पति की मृत्यु के बाद भी मांस, मछली आदि खाया करती थी। यह उसके लिए निषिद्ध था। मलेरिया से छुटकारे हेतु बांस की कोठी में उनके भोजन के लिए मरुआ की रोटी और मछली का चढ़ावा दिया जाता है।
खोख मायी- बच्चों को खांसी से बचाव के लिए भीगा हुआ चावल और रावा (गुड़) इन पर चढ़ाया जाता है, ताकि बच्चे शीघ्र स्वस्थ हो सकें।
मायी (महामाया)- मायी देवी माता को कहा जाता है। जिसकी उत्पत्ति सिंधु घाटी की सभ्यता से मानी जाती है। सिंधु घाटी की सभ्यता की खुदाई से प्राप्त सील में नग्न महिला देवियों के चित्र इनकी से इनकी उत्पत्ति को जोड़ा गया है। देवी के मण्डप पर सजे हुए सात मिट्टी के लोंदे हमें तंत्र और पुराण से सप्तमात्रिक की याद दिलाते हैं। अश्विन नवरात्र (अक्टूबर-नवंबर) में देवी की पूजा अर्चना की जाती है। उनके चढ़ावे में फूल, मिठाई, चूड़ी, ताड़ के पत्तों से बने कान की बाली तथा सिंदूर होता है। बकरी का बच्चा चढ़ाना होता है, तो उसके कान का एक कोना काटकर चढ़ा दिया जाता है। वैसे व्यक्ति, जो अपनी मनोकामना पूरी होने पर देवी की पूजा करने जाते हैं। लाल कपड़े से मिट्टी के लौंदे को ढक देते हैं तथा सात मिट्टी के बर्तन में अनाज तथा चूड़ी भी डाल कर चढ़ाते हैं। देवी की पूजा करते हुए वे देवी की महिमा का गुणगान करने वाले गीत भी गाते हैं। बिहार प्रांत के विभिन्न स्थानों पर मायी मंदिर है। मुजफ्फरपुर शहर के गन्नीपुर मुहल्ले में मायी स्थान है।
बिहुला- भागलपुर के चम्पानगर में बिहुला नाम की सती-साध्वी ने अपने पति बाला लखंदर को सर्प दंश पर पति-भक्ति में 'देवी विषहरी' की आराधना की थी। इनकी पूजा भाद्र शुक्ल पक्ष पंचमी को होती है। उस सती की पूजा मिथिला में भी होती है। जहां भी पूजा का आयोजन हेता है, उसमें विषहरी की पूजा की प्रधानता होती है। नागों को लावा-दूध चढ़ाया जाता है। साथ ही झांप भी चढ़ाया जाता है। जिस पर बिहुला और बाला लखंदर साथ-साथ नाग देवता का चित्र उकेरा जाता है। इसी से मंजुषा कला का विकास हुआ है। बिहुला के गीत लोक-नाट्य के रूप में भी प्रचलित हैं।
बंदी परमेश्वरी- बिहटा (पटना) से सटे अमहारा गांव के भूमिहार ब्राह्मण परिवार की कुलदेवी परमेश्वरी हैं। 'परमेश्वरी' शब्द का अर्थ है- परम ईश्वरी। मांट गोमरी मार्टिन ने अपनी पुस्तक 'ईस्टन इंडिया' (1838) के पृष्ठ 191 पर परमेश्वरी के सम्बंध में इस प्रकार वर्णन किया है- 'सर्वसाधारण और सामान्य नाम, जिसके द्वारा उस बड़ी देवी की यहां पूजा की जाती है, बंदी है। .. .. .. उनकी पूजा बहुत व्यापक है। सभी वर्गों के द्वारा बड़ी मां (महमाया) एवं सबसे बड़ी देवी (परमेश्वरी) के नाम से पुकारी जाती हैं। ये सभी सम्प्रदायों के द्वारा पूजी जाती हैं। प्रत्येक व्यक्ति इस देवी की पूजा अपने घर में करता है। उच्च कोटि के लोग पीढ़ा पर सोना या चांदी का छोटा टुकड़ा स्थापित करते हैं। इसे 'बंदी' कहते हैं। गरीब व्यक्ति की रसोईघर की सतह पर मिट्टी का एक पिण्ड रखते हैं।