परमहंस योगानन्द
19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में गोरखपुर में जन्मे मुकुन्द लाल घोष का परमहंस योगानंद बनने के पीछे एक काफी लंबा इतिहास साक्षी है। वे बंगाली-क्षत्रीय परिवार में अपने चार भाई और बहनों के साथ रहते थे। उनके पिता भगवती चरण घोष बहुत बड़े गणितज्ञ और तर्कविद्द थे। मां काफी दयावान स्वभाव की थी। सारे भाई-बहन मां के मुंह से महाभारत और रामायण की कहानियां सुन कर बड़े हुए।
परमहंस अपनी आत्मकथा में बताते हैं कि एक बार अपनी मां के दयावान स्वभाव के कारण उनके माता-पिता के बीच एसी झड़प हुई कि उनकी मां घर छोड़ कर जाने लगी। उनके भाई ने भगवती से बात कर इस मसले को शांत करने में अहम भुमिका निभाई।
उनके माता-पिता के कारण ही बालक मुकुन्द के भीतर योग में खास प्रकार की रुचि पैदा हुई। इसके पीछे उनके पिता की लहिरी महासाया से हुई दिलचस्प मुलाकात एक बड़ा कारण है। ये मुलाकात उनके गोरखपुर के दफ्तर में काम करने वाले अबिनाश बाबु के वजह से हुई। दरअसल इस बारे में खुद अबिनाश बाबु ने मुकुन्द को मुंहजुबानी पूरा वाक्या सुनाया उन्होंने बताया, “ तुम्हारे जन्म के कुछ समय बाद मुझे एक हफ्ते की छुट्टी चाहिए थी और उस दौरान मुझे बनारस जाकर अपने गुरु लहिरी महासाया से मिलना था। तुम्हारे पिता ने मेरी एक न सुनी और कहा तुम्हें क्या संत बनना है, अपने काम पर ध्यान दो। उसके बाद एक दिन हम लोग साथ में युंही घुम रहे थे कि अचानक ही गुरू महासाया कि आकृति उभर कर आई और तुम्हारे पिता से कहा भगवती तुम अपने कर्मचारी के साथ बहुत अन्याय कर रहे हो। फिर तु्म्हारे पिता ने मुझे सिर्फ छुट्टी ही नही दी बल्कि खुद भी अवकाश लेकर मेरे साथ बनारस चल दिए।”
मुकुन्द ऐसे ही भारतीय संतों की कहानियां सुनकर बड़े हुए। उनके दिल और दिमाग पर लहिरी के व्यक्तित्व ने गहरा प्रभाव डाला। हालांकि जिस समय मुकुन्द दुनिया में आए और अपने जीवन के नए पड़ावों की ओर बढ़ रहे थे लहिरी महासाया इस दुनिया को छोड़ कर जा चुके थे। दिवार पर टंगे लहिरी की तस्वीर के फ्रेम को देख बालक मुकुन्द बहुत प्रफुल्लित हुआ करते और एक बार जब बचपन में वे बहुत बीमार हुए उस समय लहिरी में उनके अटूट विश्वास ने उन्हें जीवित रखा।
जैसे-जैसे वे बड़े हुए उनका लगाव लहिरी महासाया के शिष्य श्री युक्तेश्वर के प्रति बढ़ा। योगानन्द इस बारे में बताते हैं कि उन्होंने अपनी आंतरिक ऊर्जा से सुखद अनुभवों को एकत्र करना सीखा, साथ ही किस तरह से उसे अन्य लोगों के साथ साझा किया जा सकता है। इन भावों से उन्मादित होकर उन्होंने उपनिशद में लिखी बात, “ईश्वर रस है”। युक्तेश्वर कभी भी ईश्वर के साक्षात दर्शन में विश्वास नही रखते थे। वे मानते थे ईश्वर की प्राप्ति रोज होने वाली एक नई प्रकार की खुशी के समान है। जिससे कभी भी कोई ऊब नही सकता। क्रिया योगा से होने वाली मानसिक तृप्ति के बाद ही उसके होने के प्रमाण मिलने लगते हैं, यही कारण है कि ध्यान के दौरान ही एक व्यक्ति को ईश्वरीय शक्ति का एहसास होता है और उसकी तमाम शंकाओं के तत्काल उत्तर उसे मिल जाते हैं।
ध्यान और योग में हासिल उपलब्धियों ने उन्हें इसका विस्तार करने में भी मदद की। उन्हें युं तो कोई दिलचस्पी नही थी लेकिन उनके गुरू ने उन्हें ईश्वर प्राप्ति के महत्व को समझाया और उसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की सलाह दी। इसके एक साल बाद ही 1918 में रांची में मनिन्द्र चंद्र नन्दी और कसीमबाजार के महाराजा की उदारता से उनकी रांची में पहुंच बढ़ी। रांची के कसीमबाजार को एक स्कूल की शक्ल दी गई जिसका नाम पड़ा ब्रह्मचार्य विद्दालय जिसमें ऋिषियों के शैक्षणिक आदर्शों को सम्मिलित किया गया। भारतीय युवाओं को यहां के जंगलों में बने आश्रम पुरातत्व माहौल में शिक्षा, धर्म-निरपेक्षता और दिव्यता का पाठ सिखाया जाता है।
रांची में मैं व्याकरण और माध्यमिक शिक्षा ग्रेड के लिए शैक्षिक कार्यक्रमों का आयोजन करवाया था। जिसमें कृषि, उद्दोग, व्यवसायिक और शैक्षिक विषयों को शामिल किया गया था। विद्दार्थियों को योगा एकाग्रता और ध्यान का भी ज्ञान दिया गया। 1916 में की गई मेरी खोज शारीरिक विकास की अद्भुत कला “योगोडा” के सिद्धांतों का भी ज्ञान दिया गया। किसी भी व्यक्ति के अंदर ऊर्जा को पैदा करना उसके स्वेच्छा के बिना असंभव है यही कारण था कि मुझे अपने छात्रों को योगोडा की कला सिखानी थी क्योंकि इसके जरिए उनके अंतस्थ को ब्रह्मांड में मौजुद लौकिक शक्ति से भरा जा सकता है।
रांची के छोटे से स्कूल से लेकर आज स्थापित एक बड़े शिक्षा संस्थान का सफर काफी दिलचस्प रहा। स्कूल के कई विभाग हैं जहां पर ऋिषियों के शैक्षिक आदर्शों की पढाई भी कराई जाती है। योगोड़ा सत-संग के नाम से इस विद्दालय की कई शाखाएं मिदनापुर, लक्षमणपुर और पुरी में बनाए गए। रांची के मुख्यालय में चिकित्सक विभाग की सुविधाा भी है साथ ही डॉक्टरों को भी वहां के समाज में रहने वाले गरीब लोगों का इलाज करवाया जाता है।
यहां हर साल 18000 लोगों का इलाज होता है। विद्दालय ने इसके परे खेल-कूद और शास्त्रीय ज्ञान में भी अपनी अच्छी खासी पैठ बनाई। विद्दालय के 28 वर्ष में इसने विश्वभर में ख्याती प्राप्त कर ली थी। साथ ही विद्दालय के पहले वर्ष में ही इसका निरीक्षण किया स्वामी प्रनाबनन्दा, बनारसी संत जिन्हें दो शरीर धारण करने वाले संत के रुप में भी जाना जाता है। उन्होंने इस संबंध मे कहा था,“मुझे बहुत खुशी है कि लहिरी महासाया के आदर्शों का पालन करते हुए यहां इतने सारे युवाओं को शिक्षा दी जा रही है। मेरे गुरु की कृपा बनी रहे।”
टैगोर ने युं तो अपनी लेखनी से हमारे समाज को कई तरह की कहानी, कविताओं, गीतों से भर दिया है। लेकिन यहां हम बात कर रहे हैं उनके विद्दालय शांतिनिकेतन और योगानन्द के विद्दालय योगाडा में कई प्रकार की समानताओं के विषय में। स्कूल के दो साल पुरे हो चुके थे। टैगोर ने योगानन्द को शांतिनिकेतन में बुलाया जहां उन्होंने अपने-अपने विद्दालयों के बारे में गहन चिंतन किया। दोनो ने अपनी उस मुलाकात के दौरान विद्दालय के अलावा समाज के बाह्यय परिवेश की समझ बढ़ाने, सरलता और सादगी के साथ बच्चों के सृजनात्मक स्वाभाव को बढावा देते हुए कई तरह के अवसर मुहैया कराता है। रबिन्द्र ने अपनी साहित्य, काव्य और उसके आत्म-प्रसतुति के तरीकों पर जोर दिया था। वे ये भी जरुर ही मानते थे कि भले ही शांतिनिकेतन के बच्चे शांतिपूर्ण माहौल में अपनी पढ़ाई करते हों लेकिन उनके पास योग-शिक्षा जैसी कोई सुविधा नही है।
योगानन्द ने टैगोर को अपने विद्दार्थियों को योगोडा और योग-ध्यान के बारे में शिक्षित करने के विषय में बताया। टैगोर ने इस बारे में अपनी शैक्षिक समस्याओं के बारे में बताया। उन्होंने स्कूल क्लासरुम को कभी ज्यादा पसन्द नही किया और यही कारण था कि उन्होंने शांतिनिकेतन में आसमान की छत और पेड़ की छांव के नीचे
शिक्षा का नया स्थल माना।
ये बात जरुर ही साफ है कि किसी भी विषय की शिक्षा गृहण करने के लिए दिमाग को दायरे से परे एक खुले माहौल की जरुरत होती है। कुछ ऐसे ही उदाहरण के साथ नए विषय योग की शिक्षा देते हुए योगाड़ा ने अपने 100 वर्ष पूरे किए हैं।
आज के तकनीकी रुप से सक्षम समाज के साथ तालमेल बिठाते हुए इस संस्थान ने अपनी पहुंच को बढाने के लिए और समाज के हर वर्ग तक पहुंचने के लिए सी डी, डी वी डी, पत्रिका, ई-न्युज, पुस्तकों के माध्यमों का काफी अच्छा प्रयोग कर रही है। यहां हर रविवार को देश भर में योग-ध्यान के सत्संग का आयोजन करता है। इसे रविवार सत्संग कहा जाता है। इसके अलावा कई तरह के योग समबंधित कार्यक्रमों का आयोजन आए दिन यहां किया जाता है। इसी के साथ यहां हर वर्ष शरद-संगम का आयोजन किया जाता है। इस हफ्ते भर के आयोजन में संस्था के गुरू क्रिया-योगा सिखाते हैं। इस वर्ष भी रांची में दो चरणों में इसका आयोजन होगा। कार्यक्रम में गुरुदेव की शिक्षा-दीक्षा के अंतर्गत ध्यान, ऊर्जा पैदा करने वाली कसरतें, भजन, विडीयो शो, आध्यात्मिक परामर्श, क्रिया योगा की दीक्षा भी दी जाती है।