गज महोत्सवGaja Mahotsavऐरावत
ऐरावत  ऐरावत के बारे में हिंदु ग्रंथो से पता चलता है कि वो देवताओं के राजा इंद्र का हाथी है। ये हाथी राजा इंद्र को समुद्र मंथन के दौरान 14वीं मूल्यवान वस्तु के रुप में मिला। ग्रंथों से परे तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में भी हाथियों की उपयोगिता के प्रमाण

गज महोत्सवGaja Mahotsavऐरावत

नवोत्थान    14-Jul-2022
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ऐरावत

 
ऐरावत

ऐरावत के बारे में हिंदु ग्रंथो से पता चलता है कि वो देवताओं के राजा इंद्र का हाथी है। ये हाथी राजा इंद्र को समुद्र मंथन के दौरान 14वीं मूल्यवान वस्तु के रुप में मिला। ग्रंथों से परे तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में भी हाथियों की उपयोगिता के प्रमाण मिले है- युद्ध के लिए चंद्रगुप्त मौर्य के पास 9000 हाथी थे। भारत के मुगल शासक अकबर के पास भी 30,000 हाथी थे। अकबर के बेटे जहांगीर के पास कुल 1,13,000 हाथी थे। बढती संख्या से जायज है उस समय हाथी सिर्फ एक जानवर की तरह नही बल्की इंसान के सहायक के रुप में थे। इसी के साथ हाथी हिंदु धर्म के भगवान गणेश का प्रतीक है। राजा-महाराजाओं के दौर में हाथी की सवारी उनके समृद्ध और शाही जीवन को दर्शाता था। जन जीवन हो या तीज त्यौहार हाथी के बिना हर काम अधूरा समझा जाता था। भारत में हाथी पूजन को हर शुभ कार्य में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। जैपुर और त्रिसुर में हाथी की खुबसूरती और अस्तित्व को पर्व की भांति मनाया जाता है। आज भी हाथी रजवाड़ों की शान का प्रतीक हैं और हर शुभ अवसर पर उन्हें बहुत सुंदर आभुषणों, रंगों, वस्त्रों से सजाया जाता है। केरल के थ्रिसुर नगर में स्थित गुरुवायुर मंदिर इसकी मिसाल है।

प्रदर्शनी

हाथियों को याद करने की मुख्य वजह विश्व हाथी दिवस था। साथ ही बदलते परिवेश में खत्म होते जंगल और हाशिए पर पहुंचते हाथियों की स्थिती समझना भी जरुरी था। हाथियों के जंगल नष्ट होने के कारण उनका भारी मात्रा में पलायन हुआ। अपने खान-पान के लिए वे जंगल से गांवों और शहरों की ओर बढे। 12 अगस्त के दिन देश भर में विश्व हाथी दिवस मनाया जाता है। इसी मौके पर हाथियों को याद करते हुए दिल्ली के इंदिरा गांधी कला केंद्र में वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने गज महोत्सव का आयोजन किया। डब्लु टी आई का ये कार्यक्रम मिनिस्ट्री ऑफ फॉरेस्ट, पर्यायवरण और क्लाइमेट चेंज के सहयोग से आयोजित हुआ। 12 अगस्त से 15 अगस्त तक इस कार्यक्रम में हाथियों को याद करने का नाकामयाब प्रयास हुआ। आईजीएनसीए शहरी इलीट वर्ग के लिए एक दिलचस्प घूमने-फिरने मौज लेने का स्थल बन गया। इस कार्यक्रम का आयोजन बड़े स्तर पर हुआ। सभी नामचीन लोग इसका हिस्सा बने। लेकिन हाथी इसका हिस्सा होकर भी न बन सका। आयोजन की मदद से हाथी के जनजीवन तक पहुंचना मुश्किल लगा। आईजीएनसीए में गज महोत्सव नाम से आयोजित इस कार्यक्रम को सात चरणों में विभाजीत किया गया। ऐरावत (हाथी भारतीय संस्कृति में), गजशास्त्र (हाथियों से जुड़ी राष्ट्रीय नीति पर बातचीत), गजसूत्र (भारतीय हाथियों की कहानी), गजधर्म (धार्मिक परंपरा में हाथी), बालगज (हाथियों की दुनिया), गजयात्रा (101 हाथियों की यात्रा) गजोत्सव (एक शाम हाथियों के साथ), गजगामिनी (भारतीय सिनेमा में हाथी)।

हाथियों के लिए कानून

इसके प्रमाण कौटिल्य के अर्थशास्त्र से मिले हैं। उसमें बताए नियम कानून के तहत राजा चंद्रगुप्त मौर्य ने हाथियों के लिए पशुविहार की स्थापना की और उनके शिकार पर जुर्माना लगाया। 18वीं सदी में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने द गवर्नमेंट फॉरेस्ट एक्ट 1865, द बंगाल एक्ट 2 1866, द बंगाल एक्ट 4 1866, द बंगाल रेगुलेशन 5 1873, द मदरास वाइल्ड एलिफैंट प्रिजरवेशन एक्ट 1873, द इंडियन फॉरेस्ट एक्ट 1878 इत्यादि बनाए गए। इसका सिलसिला अभी तक चल रहा है।

लेकिन इस क्षेत्र में सबसे अहम काम किया है एस एस बिस्ट और उनकी पत्नी पारबती बरुआ ने। उनकी 2000 में आई हाथियों के कानून संबंधित रिपोर्ट में उन्होंने देश भर के हाथियों पर बने कानून के बारे में बताया। ये कानून हाथियों पर बना पहला कानून है। पारबती बरुआ भारतीय एलिफैंट लेडी के नाम से मश्हूर हैं। वे बीबीसी की ए कन्जर्वेश्निस्ट चलचित्र का हिस्सा रही हैं। उनके जीवन पर आधारित एक किताब भी छप चुकी है माई हाफ ऑफ द स्काई।

जायज है कि कानून के होने का फायदा तब तक नही हो सकता जब तक समस्या का गहन चिंतन न किया जाए। कुछ एसा ही नजारा कार्यक्रम में भी था हर कोई अपनी बात कह रहा था। लेकिन ज्ञान का फैलाव नही हो रहा था। वहां आए आमजन के लिए कॉन्फ्रेन्स और टॉक समझना बहुत मुश्किल था। जागरुकता का स्रोत न होने के कारण कार्यक्रम कागजी कार्यवाई जैसा प्रतीत हुआ।

गज को इतने भागों में विभाजित किया गया कि उसका उद्देश्य ही स्पष्ट नही हो रहा था। गज की प्रस्तुति बेहतर हो सकती थी। इस आयोजन में बाल गज के भाग के शुरुआती दिनों में स्कूली बच्चों ने भी हिस्सा लिया। शायद ही किसी बच्चे को हाथी के महत्व का पता हो। वे सब वहां आए कुछ चित्र बनवाए गए और उसके बाद उन्हें समझाने वाला, हाथियों की रोचक जानकारी देने का स्रोत ही नही था।

प्रदर्शनी

गजयात्रा को दिखलाते पूरे आईजीएनसीए के प्रांगण में फैले अलग अलग कलाओँ, सजावट, रंगों से बने हाथी प्रसतुत किए गए। इसकी क्योरेटर थी अल्का पांडे। 101 हाथियों की प्रतिमाओँ की मदद से उनके राइट टू पैसेज के बारे में बताना उनका उद्देश्य था। यहां प्रदर्शित हाथियों को बहुत ही बहु रंगी ढंग से सजाया और बनाया गया था। हर हाथी एक दूसरे से भिन्न था। यहां तक की वहां प्रदुषण की समस्या को दर्शाते हुए प्लास्टिक की बोतल, ई कचरा को दर्शाते हुए कमप्युटर, हेडफोन, माउस से हाथियों का निर्माण किया गया था। जो काफी दिलचस्प था। वो बात और है वहां मौजूद कुछ ही लोग इसका असल मतलब समझ पाए। साथ ही राइट टू पैसेज की कोई खास जानकारी साझा नही की गई थी। दरअसल राइट टू पैसेज का आश्य है मार्ग की आजादी सीधे तौर पर कहा जाए तो हाथी का एक माइग्रेशन रुट होता है और वो उसी मार्ग पर चलते हुए अपने खान-पान की व्यवस्था करते हुए चलता है। लेकिन सरकारी तंत्रों की औद्दोगिकरण की राजनीति से कई जंगल नष्ट हुए उनका रास्ता बंद हुआ और बदला वे चलते चलते जिस भी गांव शहर में पहुंचे वहां पहुंचकर भूख से परेशान अपना खाना ढूंढने लगे। लोग भी अकसर इस बात को समझने की बजाय उनके खिलाफ हिंसक हो जाते हैं।

एसी ही एक घटना सामने आई 2015 में जब केरल के सबसे लंबे हाथी थेचिकोटूकवू रामचंद्रन के चारे में ब्लेड पाए गए। ये हाथियों के कुन्बे का सबसे मश्हूर हाथी है, हफपोस्ट की फिल्म गॉड इन शैकल्स में भी इस हाथी का मुख्य रोल था। ये हाथी काफी प्रतिष्ठित माना जाता है लेकिन रामचंद्रन 1988 से 10 लोगों की हत्या कर चुका है कारणवश उसे महोत्सव से निकाल दिया गया है। इन सब के बावजूद रामचंद्रन की मानसिक तनाव को समझने का प्रयास नही हुआ और उसे सरकारी कैद में रखा गया है

महोत्सव में कुछ कलाकृतियों की मदद से हाथी के अनोखे रुप की प्रस्तुती हुई। इसकी क्योरेटर रही ईना पूरी। महाराष्ट्र, बिहार, केरल, ओड़िसा, कोलकाता, गुजरात, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश के कलाकारों ने अपने अपने अंदाज में हाथी को कला का रुप दिया। यहां प्रदर्शित 49 चित्रों में गोंड, मधुबनी, वरली, भिल, फड़ चित्रशैली के थे। लोककला से विभिन्न राज्यों में हाथियों के अस्तित्व को दिखलाया गया। हर राज्य, गांव में हाथी के भिन्न रुप हैं। कहीं हाथी में सारा जंगल समाया है तो कहीं हाथी पुरे ब्रह्मांड का राजा है। हाथी ईश्वरीय रुप में भी था और अपने एकांकी के नायक के रुप में भी। धार्मिक परम्परा में हाथी को गणेश के रुप में पूज जाता है। उसी को दर्शाते हुए जतिन दास के दो चित्र गणपति नाम से वहां लगाए गए। जिसमें हाथी के अद्भुत रुप को प्रस्तुत किया गया। उनकी ये कला सेरिग्राफ शैली की है। आदिवासी शैली की चित्रकारी करने वाले अनिल चैत्य वंगद, जंबू सिंगाद, कल्याण जोशी, मनु पारेख, महालक्ष्मी, प्रणब नारायण दास, सुजाता बजाज, सीमा कोहली, सरोज वेंकट श्याम, शिप्रा भट्टाचार्या, वेंकट रमन श्याम के लोकचित्रों में हाथियों के सामाजिक और धार्मिक जुड़ाव को दर्शाया। प्रदर्शनी में घुसते ही गजसूत्र नामक हाथी का मोहक रुप आपका स्वागत करता है और उसे रुई, कागज, अक्रेलिक, रुद्राक्ष की माला से बनाया गया था। ये एक अच्छी शुरुआत थी । हाथी के चित्र की बात करें वेंकट रमन के गोंड चित्रों की तो उनके चित्र में प्रकृति से हाथियों के संबंध को दर्शाने का रोचक प्रयास किया गया था। जिसमें हाथी के अंदर पूरी प्रकृति समाई हुई थी। शिप्रा ने हाथियों को महिलाओं के घरेलु जीवन से जोड़ते हुए उनकी घरेलु अस्तित्व और शुभकार्यों में हाथी के चित्र बनाने और शुभ कार्य की पहल करने के बारे में बताया है। क्योंकि घरों में ये काम महिलाएं ही करती हैं जाहिर है ये सुंदर चित्र उसी का प्रतिबिंब है। मधुबनी शैली के चित्र प्रस्तुत किए महालक्ष्मी ने उन्होंने मादा हाथी का उसके बच्चे के साथ ममता भाव से लैस चित्र बना कर उनके जीवन के एक पहलु को प्रस्तुत किया। धार्मिक पहलु की जानकारी के लिए प्रणब नारायण दास का पटचित्र बहुत प्रभावी साबित हुआ। चित्र का नाम है कृष्ण कंड्रप हाथी जिसे टस्सर सिल्क पर बनाया गया है। इस चित्र में एक हाथी के गर्दन के स्थान पर कृष्ण बैठे हुए है वे बांसुरी बजा रहे हैं और बाकी के शरीर पर बनी गोपियां उसका आनंद ले रही हैं। हाथी की ईश्वरीय कल्पना कोई इससे सुंदर क्या कर सकता है? चित्रों की सुंदरता को बढाते हुए यहां कुछ मुर्तियां भी प्रदर्शित की गई थीं। जिनमें तांबे से बने गणेश को के एस राधाकृष्णन ने बनाया था इस मुर्ति के जरिए उन्होंने गणेश को एक नायक के रुप में दिखाया जो एक इंसानी गतिविधी करते हुए दिख रहा है। इसके साथ ही रिनि धूमल का रंग बिरंगा हाथी का पुतला भारतीय धार्मिक सजावट से लैस था। उस पर की गई महीन चित्रकारी हाथी के धार्मिक परम्परा की ओर इशारा कर रही थी। कुछ इसी तरह से हाथियों को भारत में खास अवसरों पर सजाया जाता है।

इसी के साथ दूसरी ओर लगी फोटो प्रदर्शनी में कई वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर आकाश दास, बनदीप सिंह, कल्याण वर्मा, नवीन सुखेजा, राजेश बेदी, मंजु आचार्य, रमेश बेलाग्री, रोहित वर्मा, सेलवा प्रकाश, श्रीनिवास अयंगार की खींची हुईं तस्वीरों से हाथियों के मौजूदा जनजीवन, सौंदर्य को प्रतिबिंबित किया गया। फोटो से हाथी के जीवन शैली समझने में आसानी हुई। हाथी का जीवन, उसकी जीवन शैली, उसका परिवार, उसकी सुंदरता को बयां करते हुए काफी करीब से दर्शकों के बीच प्रस्तुत किया गया। यहां सबसे अनोखी तस्वीरों में एक थी सेल्वा प्रकाश की मंदिर के हाथियों पर किए गए एक लंबे प्रोजेक्ट की तस्वीरें को साझा किया। इसमें उनके दैनिक जीवन की गतिविधियों को दर्शाया। बनदीप सिंह अपनी संपादकीय फोटोग्राफी शैली के लिए मश्हूर हैं उनकी हाथियों की तस्वीरों में हाथियों की भावनात्मक तस्वीरों को प्रस्तुत किया। बाकी तस्वीरों में हाथी और उनके वन जीवन का उल्लेख मिलता है जिसे बहुत खुबसूरती से कैमरे में कैद कर यहां प्रसतुत किया गया। यहां आने वाले दर्शक हाथी के विस्तृत रुप से उसके जीवन और आदतों को देख समझ पा रहे थे।

हाथी और सिनेमा

हाथियों से जुड़ी सबसे मश्हूर भारतीय फिल्म है हाथी मेरा साथी जिसमें बहुत सीधे ढंग से हाथी और मनुष्य के बीच एक मार्मिक संबंध को दर्शाया गया है। इस भव्य आयोजन में वन जीवन पर फिल्म बनाने वाले फिल्मकारों - माइक पांडे, नरेश बेदी, रीटा बैनर्जी, संगीता अइय्यर इत्यादि की फिल्में व चलचित्र भी दिखाए गए। फिल्मों का आनंद लेने वाले हर वर्ग के लोगों ने उसका आनंद सिनेमा के तौर पर लिया और उनके लिए ये उसे करीब से समझने का मौका था। फिल्म दिखाना और उस पर बात करना दो अलग चीजे हैं शायद बातचीत का सिलसिला इसे और रोचक बनाने में मदद करता। सिनेमा में हाथी विक्टिम है तो कभी नायक लेकिन उससे उसके असल जीवन में सुधार होना एक चुनौती है।

हाथी का जीवन

हाथी कला और संस्कृति में समाज से जिस रुप से जुड़ा है उसके प्रति जागरुकता जरुरी है। हाथी का समाज में क्या योगदान है वो किस प्रकार से आमजन से जुड़ा है ये समझना टेड़ी लकीर साबित हो रहा है। आज तेज गति से जंगल नष्ट हो रहे हैं और उद्दोग बनाए जा रहे हैं। मनुष्य जीवन घने हरे जंगल से दूर पूंजीवाद के जंगल में फंस गया है। आज हाथियों के विषय में जो बात हो रही है उसमें सबसे महत्वपूर्ण उसकी जीवनशैली को समझना है। हाथी की याद्दाश्त बहुत अच्छी होती है जिसका कोई जवाब नही वो न अपना अच्छा कभी भूलता है न ही बुरा। इसके प्रमाण हाथियों में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के निजी अनुभवों से पता चलते हैं। एक बार एक व्यक्ति ने हाथी को एक चॉक्लेट खिलाया और बहुत समय के बाद जब वो व्यक्ति एक दूसरी चॉक्लेट लेकर हाथी के पास पहुंचा तो उसने वो फेंक दी। हाथियों के खान पान को लेकर भी बड़ी समस्या है लोगों को पता ही नही है कि वे क्या पसंद करते है? हाथियों का प्रिय भोजन है बैम्बू और आज बैम्बू की स्थिती उनके पलायन से जाहिर होती है। गुरुवायुर मंदिर में हाथियों के भोजन की बहुत अच्छी व्यवस्था है। वहां पर हाथियों को यूं तो 300 से 400 ग्राम पाम के पत्ते, नारियल के पत्ते और 50 से 100 किलो हरी घास खिलाया जाता है। लेकिन जब कोई श्रद्धालु मंदिर को 6000 रुपए का दान देता है उस दिन उन्हें चावल, गुड़ इत्यादी खिलाया जाता है। कहा जाता है असली जीवन तो गुरुवायुर मंदिर के हाथी जीते हैं।

गुरुवायुर मंदिर

केरल में आज भी हाथियों को बहुत बड़े स्तर पर पूजा जाता है। उनकी देख रेख एक मनुष्य की भांति की जाती है। यह मंदिर इस संदर्भ में श्रेष्ठ कार्य कर रहा है। हाथियों को पालने और दान करने का जिक्र ईसा पूर्व से मिलता है। सम्राट अशोक ने अपने समय में हाथियों के लिए अस्पताल बनवाए थे। चंद्रगुप्त मौर्य ने ग्रीक सेनापति सेल्यूकस की बेटी हेलेना से शादी करने के बाद अपने ससुर को 500 हाथी दान में दिए थे। 2007 के गुरुवायुर मंदिर के आंकड़ों से पता चलता है कि एक हाथी पर प्रतिदिन 700-800 रुपए का खर्चा होता है। महावतों का वेतन 5500 रुपए से लेकर 13000 हजार रुपए तक है। अगर हाथी किसी समारोह का हिस्सा बनता है तो उसके लिए प्रतिदिन 250 रुपए का भत्ता दिया जाता है। 65 हाथियों के लिए 170 महावत और कर्मचारी हैं। एक पशु डॉक्टर है, दो सहायक हैं।

मंदिर की खास बात थी कि पहले यहां कोई भी व्यक्ति हाथी दान कर सकता था। लेकिन उससे कई प्रकार की हाथियों से जुड़ी स्वास्थय संबंधित समस्याओं पैदा हुई। वनजीवन संरक्षण अधिनियम ने इसकी गंभीरता को समझा और कड़े कानून बनाया। जिसके तहत हाथी दान करने वाले को दो प्रमाण पत्र देना मान्य है पहला फिटनेस सर्टिफिकेट और दूसरा ओनरशिप सर्टिफिकेट। साथ ही हाथी की आयू 15 से 35 वर्ष होनी चाहिए। निर्धारित मांगों की पूर्ति होने पर ही हाथी दान सफल होगा। उसी समय की एक घटना याद आती है कि हाथी दान के लिए जयललिता ने भी खूब मेहनत की लेकिन वो प्रमाणपत्र प्रस्तुत नही कर पाई और मंदिर प्रशासन ने उनके हाथी दान को स्वीकारा नही किया। यहां हाथियों के प्रजनन पर भी रोक है। मंदिर मानता है कि इसकी देख रेख पर सालाना दो करोड़ रुपए का खर्च आता है और हाथी अपनी सामाजिक उपयोगिता से करोड़ों रुपए कमा लेते हैं।