लोकगीत
लोकगीत   अपने देश में सदियों से विवाह के मौके पर महिलाओं द्वारा लोकगीत गाने की परम्परा रही है। नारी शक्ति और सौंदर्य की भूमि मिथिला इस परम्परा से अछूती कैसे रह सकती है। मिथिला बिहार का वह भाग है जो सीतामढी से मधुबनी होते हुए दरभंगा तक जाता है

लोकगीत

नवोत्थान    14-Jul-2022
Total Views |

लोकगीत

 


Lokgeet2

अपने देश में सदियों से विवाह के मौके पर महिलाओं द्वारा लोकगीत गाने की परम्परा रही है। नारी शक्ति और सौंदर्य की भूमि मिथिला इस परम्परा से अछूती कैसे रह सकती है। मिथिला बिहार का वह भाग है जो सीतामढी से मधुबनी होते हुए दरभंगा तक जाता है। इस भूमि का एक बड़ा भाग नेपाल में है। प्राचीनकाल में यह भूमि जनक की थी। विदेहों और लिच्छवियों के प्रजातंत्र की भूमि यही रही है। हमारे छह दर्शनों में से दे न्याय और मीमांसा का जन्म यहीं हुआ था। प्राचीनकाल से मिथिला नारी शक्ति का केंद्र रहा है। सीता का त्याग, आम्रपाली का सौंदर्य, भारती की विद्वता और भामती के त्याग से सभी परिचित हैं। प्रकृति ने मिथिला में दोनों हाथों से सौंदर्य लुटाया है। एक कवि ने मैथिलानी के नेत्रों की चर्चा करते हुए लिखा है-

खाइबो में चिउरा, चबाइबो में पुंगीफल

देखबो में खंजन नयन मिथलानी को।

मिथिला में बेटी को बड़ा शुभ माना जाता है। किसी के घर बेटी पैदा होती है तो सभी लोग कहते हैं, आपके घर लक्ष्मी का आगमन हुआ है। यहां की हर इच्छा को पूरा करने वाला महान व्रत छठ माना जाता है। एक छठ व्रतधारी युवती छठी मइया से प्रार्थना करती है-

घोड़ा चढन लागी बेटा मांगिलौ

मंगिलौ घर सचिनि पतोहु छठी माता

बायना बहुरे लागि बेटी मांगिलौ

पंडित मांगिलौ दामाद छठी मइया।

अर्थात सम्पन्नता का प्रतीक घोड़े पर चढने वाला बेटा और उसके लिए कुलवंती स्त्री, एक सुंदर भाग्यशाली बेटी और उसके लिए सुंदर वर की मांग महिलाएं बड़े स्वाभाविक ढंग से करती हैं। छठी मइया की कृपा से एक बेटी पैदा होती है। वह बेटी से किशोरी और किशोरी युवती बन जाती है। उसके माता-पिता को विवाह की चिंता सताने लगती है-

कर जोडि विनती करथि ऋषि रानी

सुनहु जानकि तात हो

सिया कुमारी कतेक दिन रहती

इ नहीं उचित बात हो।

अर्थात बेटी को कुंवारी रखना समाज में अनुचित समझा जाता है। परिवार वालों को चिंता के मारे नींद नहीं आती-

जाहि घर आहे बाबा धियाही कुमारि

से ही कोना सुतथि निश्चिंत हो।

पिता वर की तलाश में निकलते हैं। बेटी कम दुलारी नहीं है। वह अपने पिताजी से कुछ आग्रह करती है-

बाबा चललाह घर वर जोहय

आगा भय रुकमिनी ठाड़ि हे

कर जोड़ि विनती करै दि हो बाबा

सुनु बाबा विनती हमार हे

जनि बाबा लायब चोर चण्डाल के

जनि लाबि तपसी भिखारी हे

छूछ गेठरिया सहस्त्र प्रति बान्हल

मारत बिनु अपराध हे।

पिता बेटी के इच्छानुसार वर लाने का प्रयास करता है, लेकिन आर्थिक कठिनाइयों के कारण अभिभावक मजबूर होकर अपनी कन्या का विवाह बेमेल से कर देते हैं। नीचे गीत में एक निर्धन पिता ने अपनी बेटी के लिए तपस्वी को चुना है-

पूरब खोजल बेटी, पछिम खोजल

खोजल मगह मुंगेर हे

तोहरा जुगुति बेटी वर नहीं भेल

खोजि अएलो तपसी भिखारी हे।

बेटी के विवाह के गीतों का जितना बड़ा भंडार मिथिला में है, वैसा अंयत्र दुलर्भ है। यहां का विवाह भी साधारण विवाह नहीं होता। दूल्हे को कम से कम सवा महीना ससुराल में रहना होता है। प्रतिदिन कोई-न-कोई विधि होती है और हर विधि के लिए अलग-अलग गीत हम मिथिला में ही देख सकते हैं।

कन्यादान महान दान माना जाता है। कन्यादान के पश्चात लड़की के पिता और परिवार वालों की आँखे अश्रुजल से भर गई हैं-

कन्यादान कयक उठला बाबा

मोती जकां झहरनि नोर (लोर) हे।

एते दिन छलहु बेटी हमरहु कुल में

आई बेटी होई छी वीरान है।

सुगा जौ पोसितहु भजन सुनवितय

धीया पोसि किछु नहीं भेल

धीवक धैल जकां पोसलौं हे धीया

बेटा जकां कयल दुलार

से हो धीया मोर सासु जैतीह

सून भवन केने जाए।

अर्थात शादी के बाद बेटी पराई हो रही है। वैसी बेटी जिसका हमने सुग्गा और पुत्र के समान पालन किया। वह बेटी ससुराल जा रही है। हमारा घर सूना हो गया।

मैथिली लोकगीत हो और विद्दापति की चर्चा नहीं हो, यह कहां सम्भव है। लड़की की विदाई कि करुण वेला को संगीत में ढाल देने की परम्परा मैथिली गीतों में है-

धिया हे रहब सबहक प्रिय जाए

एत छलहु सबके अतिप्रिय भेली

नयनन देखि जुड़ाए

ओतए रहब सबके अनुचरि भेली

भेंटत ओतए नहीं माय।

अर्थात हे बेटी! वहां पति के घर सबकी प्यारी बनकर रहना। तुम यहां (मां के घर) सबकी प्यारी थी। तेरा बचपन देखकर सब लोग खुश थे। वहां तो सबकी दासी बनकर रहना है। वहां मां नहीं मिलेगी। गीत की अंतिम पंक्तियां अत्यंत मार्मिक हैं-

छोड़ती पैर नहीं माय कहत नहिं

गदगद कंठ सुखाय।

भनय विद्दापति वियोगकाल में

कानन एक उपाय।

अर्थात बेटी पैर नहीं छोड़ रही है, मां बोल नहीं रही है। गदगद कंठ सूख रहे हैं। विद्दापति कहते हैं कि वियोग के समय रोना ही एकमात्र उपाय रह जाता है। बेटी की विदाई के समय अत्यंत कारुणिक स्थिति बन जाती है-

बांस-कोपर सन भाई तेजब

कमलक फूल सन बाप

पुरइन दह सन माय हम तेजल

छूटि गेल बाबा कर राज

डांरि उधारि जब देखलिन धीया

कांकड़ि जकां हिया फाट।

अर्थात बेटी अपने परिवार के सभी प्रियजनों से बिछुड़ रही है। डोली में जब मां ने बेटी को देखा तो ककड़ी जैसा कलेजा फटने लगा। डोली में बैठकर बेटी ससुराल के लिए प्रस्थान कर गई है। उसके साथ चल रहा उसका छोटा भाई काफी पीछे छूट गया। उसे नहीं देखकर बेटी कहारों से डोली रोकने का आग्रह करती है-

गोर तोरा परिअऊ अगिला कहरिया रे

तनयिक डोलिया रोकु रे कहरिया

भाय मोरा रहितथि डोली संग चलितथि

बिनु भाय डोलिया सुन रे कहरिया।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि महाकवि विद्दापति, गोबिंददास, हर्षनाथ झा आदि लोककवियों ने जिन गीतों की रचना की, यहां कि विदुषियों ने अपना कंठ प्रदान कर उन्हें अमर बना दिया और बेटी के विवाह में वह भाव भर दिया, जो अयंत्र दुर्लभ है।