बोधिसेन की जापानी बौद्ध गाथा
जापान में आज भी भारतीय संस्कृति से प्रेरित अवशेष हैं। यहां संस्कृत और भारतीय परम्परा की अनोखी झलक देखने को मिलती है। केगोन विद्दालय का निर्माण बोधीसेन ने किया। विद्दालय का उद्देश्य संस्कृत और बौद्ध धर्म के विस्तार के लिए हुआ। इसका मुख्यालय नारा शहर के टोडाय मंदिर में है। मंदिर को युनेस्को की तरफ से वैश्विक धरोहर का दर्जा प्राप्त है। यहां मौजूद 500 टन और 15 मीटर ऊंची बुद्ध की कांस्य की मूर्ति मंदिर की खुबसूरती का आइन है। टोडाय मंदिर के एक तरफ मोरिमोटो परिवार रहता है, वे मंदिर के मुख्य पुजारी हैं। मोरिमोटो परिवार के वरिष्ठ पुजारी बोधिसेन को एक दोस्त की भांति याद करते हैं। वो भारतीय परंपरा और पश्चिमी पूजा परंपरा में गहरा फर्क समझते हैं। बोधिसेन के साथ आए दो सहयात्री गेनबो और मकिबी पर भी उन्होंने अपनी गहरी छाप छोड़ी। गेनबो ने चीन में 17 वर्ष रहकर पांच हजार बौद्धलिपियों का संरक्षण किया और किबी नो मकिबी ने जापानी भाषा में कटकना लिपि का उत्थान किया जो आज भी जापान में प्रयोग की जाती है। कटकना लिपि में संस्कृत का खासा प्रभाव देखा जाता है। इसका कारण मकिबी और बोधिसेन की मित्रता भी था, वे उनकी संगत में संस्कृत को काफी सुंदर ढंग से समझ पाए।
बोधिसेन 736 ईसवी में ओसाका पहुंचे, उसके बाद नारा का रुख किया। 710-784 ईसवी का वह दौर बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार से सराबोर था। चीन की तांग वंश के योगदान से जापान में भी बौदध धर्म का बहुत बोलबाला रहा। उसी समय में जापान के राजा शोमू ने बौदध धर्म को राजकीय दर्जा देकर बौदध धर्म का उत्थान किया।
बोधिसेन को आज भी जापान में प्रचलित बौद्ध धर्म, संस्कृत भाषा के प्रचार और केगोन विद्दालय के रुप में किए गए अनूठे योगदान के कारण याद किया जाता है।